वरिष्ठ संवाददाता / नभाटा नई दिल्ली : क्या भ्रष्टाचार और सत्ता के बेजा इस्तेमाल के मामले उठाने पर मीडिया की आवाज दबा देना जायज है? क्या पत्रकारों को पत्रकारिता करने के लिए लाइसेंस दिए जाने चाहिए? क्या मीडिया पर कोड ऑफ कंडक्ट लागू कर दिया जाए ताकि उसकी आड़ में यह तय करने का अधिकार छीन लिया जाए कि वह क्या छापे और क्या दिखाए? इन सवालों पर विचार करने और सरकार व न्यायपालिका के ऐसे दमनकारी कदमों का विरोध करने के लिए प्रेस क्लब में पत्रकारों ने एक बैठक बुलाई थी। इसमें बड़ी संख्या में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकार शामिल हुए। हाल में एक अखबार के पत्रकारों के खिलाफ आए गिरफ्तारी के आदेशों और सरकार द्वारा एक न्यूज चैनल पर एक महीने के लिए रोक लगा देने के फैसले ने पत्रकार बिरादरी में पनपे रोष को हवा दे दी है। उनका कहना है कि मीडिया का मुंह बंद करने की कोशिशें पहले भी कामयाब नहीं हो पाईं। इस देश का मिजाज ऐसा है कि इस तरह की कोशिशें कामयाब हो ही नहीं पाएंगी।
पंकज पचौरी (एनडीटीवी) : मीडिया को अपनी सीमा खुद तय करने का अधिकार होना चाहिए। उसे उसका काम सिखाने के लिए किसी ब्रॉडकास्टिंग बिल या कानून की जरूरत नहीं है। सरकार मीडिया के कामकाज में दखल देने की कोशिश न करे, इसी में दोनों की भलाई है। हाल में मीडिया काफी सशक्त हुआ है इसलिए सरकार, न्यायपालिका और नौकरशाही उसे दबाने की कोशिशें कर रही हैं।
संकर्षण ठाकुर (तहलका) : बेशक अच्छे और खराब पत्रकार हो सकते हैं, लेकिन लोकतंत्र में मीडिया के कामकाज में दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं की जाएगी। अवमानना के कानून पर रोक लगा दी जानी चाहिए।
अनिरुद्ध बहल (कोबरापोस्ट डॉटकॉम) : पत्रकारों का काम है कि वे सत्ता के दुरुपयोग को उजागर करें। आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया निशाना बना है, कल प्रिंट मीडिया भी लपेट में आ सकता है।
विनोद शर्मा (हिंदुस्तान टाइम्स) : प्रेस की आजादी को कुचलने की कोशिशें सफल नहीं हो पाएंगी, क्योंकि सत्ता में बैठे लोग इस मुद्दे पर एकमत नहीं हैं। पत्रकारों पर लाइसेंस के जरिए अंकुश लगाने के प्रयासों की निंदा करते हुए उन्होंने कहा कि यह कभी मंजूर नहीं किया जाएगा। जिस तरह अदालत की अवमानना के नियम का दुरुपयोग करने की कोशिश की जा रही है, उससे खुद अदालत को भी जवाबदेह बनाने का सवाल तूल पकड़ सकता है।
प्रशांत भूषण (वरिष्ठ वकील) : न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार की बातें सामने आती रहती हैं तो क्या उसकी कोई जवाबदेही नहीं बनती? न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए प्रावधान हो सकते हैं तो मीडिया के लिए क्यों नहीं? उन्होंने अवमानना का कानून समाप्त करने की बजाय, उसकी परिभाषा बदलने की मांग की।
राजदीप सरदेसाई (सीएनएन-आईबीएन) : राजदीप सरदेसाई ने कहा कि इन दिनों बहुत से न्यूज चैनलों को सरकार द्वारा नोटिस भेजे गए हैं। उन्होंने कहा कि पत्रकारों की गिरफ्तारी के आदेशों और न्यूज चैनल पर पाबंदी के मामलों ने हमें यह विचार करने का मौका दिया है कि हम कहां चूक रहे हैं। ब्रॉडकास्टिंग कोड बनना चाहिए लेकिन संपादकों और पत्रकारों में इच्छाशक्ति की कमी के कारण यह नहीं हो पा रहा।
विनोद मेहता (आउटलुक) : आज मीडिया पर सरकार और न्यायपालिका का दोहरा दबाव है। जब तक कोड ऑफ कंडक्ट नहीं बन जाता, सभी चैनल स्टिंग ऑपरेशन न दिखाएं।
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