शनिवार, 22 सितंबर 2007

अदालतें पवित्र गाय नहीं हैं : संजय तिवारी

आज मिड-डे के दो पत्रकारों, एक कार्टूनिस्ट और मिड डे के प्रकाशक को दिल्ली उच्च न्यायालय ने चार-चार महीने की सजा सुनाई. हालांकि 10-10 हजार के निजी मुचलके पर उन्हें छोड़ दिया गया और अब वे 28 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट में अपील करेंगे, फिर भी सवाल उठता है कि क्या न्यायपालिका पवित्र गाय हैं जिन पर अंगुली नहीं उठाई जा सकती?

यह बहुत गंभीर घटना है. इसलिए नहीं कि किसी पत्रकार को सजा सुनाई गयी है. बल्कि इसलिए कि ऐसे पत्रकारों को सजा सुनाई गयी है जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ जांच-पड़ताल की और ऐसे तथ्य सामने लाये जिससे दिल्ली में हुई सीलिंग के सवाल पर सब्बरवाल शक के घेरे में आते हैं. उनके बेटों ने जिस तरह से पैसा बनाया है उसकी खोजबीन मिड-डे के पत्रकारों ने ही की थी. आज देश की कई हिन्दी अंग्रेजी पत्रिकाएं इस बात को छाप चुकी हैं कि किस तरह सब्बरवाल दिल्ली में सीलिंग के आदेश दे रहे थे और उनके बेटे भवन निर्माण उद्योग में अपनी पैठ बना रहे थे.
(पूरी रपट).
क्या इंसान की बनाई किसी व्यवस्था पर इंसान सावल नहीं खड़े कर सकता? अगर किसी अदालत के निर्णय से मेरे जीवन पर फर्क पड़ता है तो क्या मुझे हक नहीं है कि मैं उसका विरोध करूं? और फिर अदालतें कितनी "माननीय" रह गयी हैं इस बारे में विचार करने की जरूरत है. ऐसे कुछ निर्णयों की जांच-पड़ताल होनी चाहिए जो जनभावना के खिलाफ होते हैं. उन निर्णयों के पीछे कौन से तत्व काम कर रहे होते हैं इस बारे में लोगों को पता लगना चाहिए. हाईकोर्ट कहता है कि पत्रकारों और अखबार के प्रकाशक ने लक्ष्मणरेखा पार कर दी है. क्या हाईकोर्ट बताएगा कि वह लक्ष्मणरेखा क्या है?

आखिर क्या कारण हैं कि सब्बरवाल पर पत्रकारों द्वारा उठाये गये सवालों पर जांच करने की बजाय उलटे पत्रकारों को ही दोषी माना जा रहा है. ऐसे दौर में जब पत्रकारिता खुद अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है पत्रकारों को इस तरह सजा देना मनोबल को तोड़ता है. ऐसे में जब पत्रकारिता भी पीआर एजंसियों के हवाले होती जा रही है, किसी ऐसे पत्रकार को मानहानि का दोषी करार दे देना जो एक अदालती फैसले की असली सच्चाई को सबके सामने लाता है, कहीं से स्वागतयोग्य नहीं है.

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