शनिवार, 29 सितंबर 2007

पत्रकारों की सजा पर सुप्रीम कोर्ट की रोक

'मीडिया की आजादी को कुचलने से बाज आए सरकार'
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने मिड-डे के चार पत्रकारों को सुनाई गई सजा पर रोक लगा दी। पूर्व मुख्य न्यायाधीश वाई के सब्बरवाल के खिलाफ कथित मानहानि संबंधी रिपोर्ट लिखे जाने के आरोप में चारों पत्रकार को चार महीने जेल की सजा सुनाई गई थी।
न्यायाधीश अरिजीत पसायत और पी सतशिवम ने समाचार पत्र की ओर से दायर अपील को स्वीकार करते हुए चारों पत्रकारों को सुनाई गई सजा पर रोक लगा दी। याचिका में 21 सितंबर को दिल्ली हाईकोर्ट की ओर से सुनाई गई सजा को चुनौती दी गई थी।
न्यायालय ने 27 प्रबुद्ध नागरिकों की ओर से मामले की सुनवाई के संबंध में अपनी बातों को रखे जाने का मौका दिए जाने के अनुरोध को लेकर दायर याचिका को खारिज कर दिया। याचिका को खारिज करते हुए न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्ता का इस मामले में हस्तक्षेप का कोई औचित्य नहीं बनता, क्योंकि सवाल यह है कि क्या पत्रकारों ने अवमानना किया है या नहीं। पीठ ने यह ऐलान किया कि वह मामले में न्यायालय की सहायता के लिए वरिष्ठ अधिवक्ता और पूर्व अतिरिक्त सोलिसीटर जनरल ए आर अंधियार्जुन को नियुक्त कर रही है।
न्यायालय में बृहस्पतिवार को 27 प्रबुद्घ नागरिकों ने याचिका दायर कर यह अनुरोध किया था कि उन्हें भी वही सजा दी जाए जो मिड-डे के पत्रकारों को पूर्व मुख्य न्यायाधीश वाई के सब्बरवाल के खिलाफ कथित अपमानजनक रिपोर्ट लिखने के आरोप में सुनाई गई है। याचिकाकर्ताओं के अनुसार चार पत्रकारों को सुनाई गई सजा न केवल अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला है बल्कि इस फैसले ने लोगों को एक गलत संदेश भी दिया है। याचिका में दावा किया गया है कि हाईकोर्ट का रुख गणतंत्रात्मक लोकतंत्र और संविधान के मूल सिद्धांत के तहत भ्रामक और गलत है। अपने आवेदन में उन्होंने न्यायालय से अनुरोध किया कि उन्हें भी वही सजा दी जाए जो मिड-डे के पत्रकारों को सुनाई गई है।

याचिका पर हस्ताक्षर करने वालों में मैग्सेसे पुरस्कार विजेता अरविंद केजरीवाल, पूर्व नौकरशाह हर्ष मांदेर, सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी के एस सुब्रम्ण्यम, पूर्व प्रशासनिक अधिकारी एस पी शुक्ल, अमित भादुरी, प्रो. अरुण कुमार जैसे व्यक्ति शामिल हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने 19 सितंबर को दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा पूर्व मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ लेख प्रकाशित करने के आरोप में समाचार पत्र के चार पत्रकारों के खिलाफ शुरू किए गए अवमानना मामले पर रोक लगाने से इंकार कर दिया था।

हाईकोर्ट ने 11 सितंबर को मिड-डे के संपादक एम के तयाल, तत्कालीन प्रकाशक एस के अख्तर, स्थानीय संपादक वितुशा ओबेराय और कार्टूनिस्ट इरफान को अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया था।

सजा सुनाए जाने के खिलाफ शीर्ष अदालत में दाखिल विशेष अनुमति याचिका में पत्रकारों ने कहा था कि हाईकोर्ट का आदेश अतार्किक है और इसे न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता।

याचिका में कहा गया है कि रिपोर्ट वृत्ता चित्र के आधार पर लिखी गई थी। इस पर कुछ पूर्व मुख्य न्यायाधीशों का कहना था कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश सब्बरवाल के खिलाफ जो आरोप लगे हैं उसकी न्यायिक जांच कराई जानी चाहिए।

विवादास्पद रिपोर्ट 18 मई को प्रकाशित की गई थी। इसमें आरोप लगाया गया था कि न्यायमूर्ति सब्बरवाल ने सीलिंग के संबंध में आदेश अपने बेटे को फायदा पहुंचाने के लिए दिया था। न्यायमूर्ति सब्बरवाल का बेटा रियल स्टेट के कारोबार से संबद्ध है। साभार- जागरण हिन्दी दैनिक

'मीडिया की आजादी को कुचलने से बाज आए सरकार'

वरिष्ठ संवाददाता / नभाटा नई दिल्ली : क्या भ्रष्टाचार और सत्ता के बेजा इस्तेमाल के मामले उठाने पर मीडिया की आवाज दबा देना जायज है? क्या पत्रकारों को पत्रकारिता करने के लिए लाइसेंस दिए जाने चाहिए? क्या मीडिया पर कोड ऑफ कंडक्ट लागू कर दिया जाए ताकि उसकी आड़ में यह तय करने का अधिकार छीन लिया जाए कि वह क्या छापे और क्या दिखाए? इन सवालों पर विचार करने और सरकार व न्यायपालिका के ऐसे दमनकारी कदमों का विरोध करने के लिए प्रेस क्लब में पत्रकारों ने एक बैठक बुलाई थी। इसमें बड़ी संख्या में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकार शामिल हुए। हाल में एक अखबार के पत्रकारों के खिलाफ आए गिरफ्तारी के आदेशों और सरकार द्वारा एक न्यूज चैनल पर एक महीने के लिए रोक लगा देने के फैसले ने पत्रकार बिरादरी में पनपे रोष को हवा दे दी है। उनका कहना है कि मीडिया का मुंह बंद करने की कोशिशें पहले भी कामयाब नहीं हो पाईं। इस देश का मिजाज ऐसा है कि इस तरह की कोशिशें कामयाब हो ही नहीं पाएंगी।
पंकज पचौरी (एनडीटीवी) : मीडिया को अपनी सीमा खुद तय करने का अधिकार होना चाहिए। उसे उसका काम सिखाने के लिए किसी ब्रॉडकास्टिंग बिल या कानून की जरूरत नहीं है। सरकार मीडिया के कामकाज में दखल देने की कोशिश न करे, इसी में दोनों की भलाई है। हाल में मीडिया काफी सशक्त हुआ है इसलिए सरकार, न्यायपालिका और नौकरशाही उसे दबाने की कोशिशें कर रही हैं।
संकर्षण ठाकुर (तहलका) : बेशक अच्छे और खराब पत्रकार हो सकते हैं, लेकिन लोकतंत्र में मीडिया के कामकाज में दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं की जाएगी। अवमानना के कानून पर रोक लगा दी जानी चाहिए।
अनिरुद्ध बहल (कोबरापोस्ट डॉटकॉम) : पत्रकारों का काम है कि वे सत्ता के दुरुपयोग को उजागर करें। आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया निशाना बना है, कल प्रिंट मीडिया भी लपेट में आ सकता है।
विनोद शर्मा (हिंदुस्तान टाइम्स) : प्रेस की आजादी को कुचलने की कोशिशें सफल नहीं हो पाएंगी, क्योंकि सत्ता में बैठे लोग इस मुद्दे पर एकमत नहीं हैं। पत्रकारों पर लाइसेंस के जरिए अंकुश लगाने के प्रयासों की निंदा करते हुए उन्होंने कहा कि यह कभी मंजूर नहीं किया जाएगा। जिस तरह अदालत की अवमानना के नियम का दुरुपयोग करने की कोशिश की जा रही है, उससे खुद अदालत को भी जवाबदेह बनाने का सवाल तूल पकड़ सकता है।
प्रशांत भूषण (वरिष्ठ वकील) : न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार की बातें सामने आती रहती हैं तो क्या उसकी कोई जवाबदेही नहीं बनती? न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए प्रावधान हो सकते हैं तो मीडिया के लिए क्यों नहीं? उन्होंने अवमानना का कानून समाप्त करने की बजाय, उसकी परिभाषा बदलने की मांग की।
राजदीप सरदेसाई (सीएनएन-आईबीएन) : राजदीप सरदेसाई ने कहा कि इन दिनों बहुत से न्यूज चैनलों को सरकार द्वारा नोटिस भेजे गए हैं। उन्होंने कहा कि पत्रकारों की गिरफ्तारी के आदेशों और न्यूज चैनल पर पाबंदी के मामलों ने हमें यह विचार करने का मौका दिया है कि हम कहां चूक रहे हैं। ब्रॉडकास्टिंग कोड बनना चाहिए लेकिन संपादकों और पत्रकारों में इच्छाशक्ति की कमी के कारण यह नहीं हो पा रहा।
विनोद मेहता (आउटलुक) : आज मीडिया पर सरकार और न्यायपालिका का दोहरा दबाव है। जब तक कोड ऑफ कंडक्ट नहीं बन जाता, सभी चैनल स्टिंग ऑपरेशन न दिखाएं।

शनिवार, 22 सितंबर 2007

क्योंकि चुप रहना अपराध है! : -दिलीप मंडल

बोलने की आजादी खतरे में है। बोलने की आजादी भारतीय संदर्भ में हमेशा से सीमित रही है। लेकिन वो सीमित आजादी भी खतरे में हैं। इस बार भी बोलने की आजादी पर खतरा सिस्टम की तरफ से ही आया है। और सिस्टम के खास अंग की बात करें तो खतरा फिलहाल न्यायपालिका की ओर से आता दिख रहा है। वो लोग भोले हैं जो न्यायपालिका को व्यवस्था से अलग करके देखते हैं। आज की भारतीय व्यवस्था ज्यादातर अलोकप्रिय कदम न्यायपालिका के जरिए ही उठा रही है।

1974 में पत्रकारों और लेखकों के बड़े हिस्से ने एक गलती की थी। उसका कलंक एक पूरी पीढ़ी ढो रही है। इमरजेंसी की पत्रकारिता के बारे में जब भी चर्चा होती है तो एक जुमला हर बार दोहराया जाता है - पत्रकारों को घुटनों के बल बैठने को कहा गया और वो रेंगने लगे। इंडियन एक्सप्रेस जैसे अपवाद उस समय कम थे, जिन्होंने अपना संपादकीय खाली छोड़ने का दम दिखाया था। क्या 2007 में हम वैसा ही किस्सा दोहराने जा रहा हैं? बात मिडडे में छपी कुछ खबरों से शुरू हुई। जिसके बारे में खुद ही संज्ञान लेते हुए हाईकोर्ट ने मिड डे के चार पत्रकारों को अदालत की अवमानना का दोषी करार देते हुए उन्हें चार-चार महीने की कैद की सजा सुनाई है। इन पत्रकारों में एडीटर एम के तयाल , रेजिडेंट एडीटर वितुशा ओबेरॉय, कार्टूनिस्ट इरफान और तत्कालीन प्रकाशक ए के अख्तर हैं। अदालत में इस बात पर कोई जिरह नहीं हुई कि उन्होंने जो लिखा वो सही था या गलत। अदालत को लगा कि ये अदालत की अवमानना है इसलिए जेल की सजा सुना दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले की सुनवाई रोकने की अपील ठुकरा दी है। कार्टूनिस्ट इरफान ने कहा है कि चालीस साल कैद की सजा सुनाई जाए तो भी वो भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्टून बनाते रहेंगे। मिड डे ने भारत के माननीय मुख्य न्याधीश के बारे में एक के बाद एक कई रिपोर्ट छापी। रिपोर्ट तीन चार स्थापनाओं पर आधारित थी।
- पूर्व मुख्य न्यायाधीश के सरकारी निवास के पते से उनके बेटों ने कंपनी चलाई। - उनके बेटों का एक ऐसे बिल्डर से संबंध है, जिसे दिल्ली में सीलिंग के बारे में सब्बरवाल के समय सुप्रीम कोर्ट के दिए गए आदेशों से फायदा मिला। सीलिंग से उजड़े कुछ स्टोर्स को उस मॉल में जाना पड़ा जो उस बिल्डर ने बनाया था। - सब्बरवाल के बेटों को उत्तर प्रदेश सरकार ने नोएडा में सस्ती दर पर प्लॉट दिए। ऐसा तब किया गया जबकि मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह के मुकदमे सुप्रीम कोर्ट में चल रहे थे। ये सारी खबरें मिड-डे की इन लिंक्स पर कुछ समय पहले तक थी। लेकिन अब नहीं हैं।

अदालत के फैसले से पहले मिड-डे ने एक साहसिक टिप्पणी अपने अखबार में छापी है। उसके अंश आप नीचे पढ़ सकते हैं।
-हमें आज सजा सुनाई जाएगी। इसलिए नहीं कि हमने चोरी की, या डाका डाला, या झूठ बोला। बल्कि इसलिए कि हमने सच बोला। हमने जो कुछ लिखा उसके दस्तावेजी सबूत साथ में छापे गए। हमने छापा कि जिस समय दिल्ली में सब्बरवाल के नेतृत्व वाले सुप्रीम कोर्ट के बेंच के फैसले से सीलिंग चल रही थी, तब कुछ मॉल डेवलपर्स पैसे कमा रहे थे। ऐसे ही मॉल डेवलपर्स के साथ सब्बरवाल के बेटों के संबंध हैँ। सुप्रीम कोर्ट आदेश दे रहा था कि रेसिडेंशियल इलाकों में दफ्तर और दुकानें नहीं चल सकतीं। लेकिन खुद सब्बरवाल के घर से उनके बेटों की कंपनियों के दफ्तर चल रहे थे। लेकिन हाईकोर्ट ने सब्बरवाल के बारे में मिडडे की खबर पर कुछ भी नहीं कहा है। मिड डे ने लिखा है कि हम अदालत के आदेश को स्वीकार करेंगे लेकिन सजा मिलने से हमारा सिर शर्म से नहीं झुकेगा। अदालत आज एक ऐसी पत्रकारिता के खिलाफ खड़ी है, जो उस पर उंगली उठाने का साहस कर रही है। लेकिन पिछले कई साल से अदालतें लगातार मजदूरों, कमजोर तबकों के खिलाफ यथास्थिति के पक्ष में फैसले दे रही है। आज हालत ये है कि जो सक्षम नहीं है, वो अदालत से न्याय पाने की उम्मीद भी नहीं कर रहा है। पिछले कुछ साल में अदालतों ने खुद को देश की तमाम संस्थाओं के ऊपर स्थापित कर लिया है। 1993 के बाद से हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति में सरकार की भूमिका खत्म हो चुकी है। माननीय न्यायाधीश ही अब माननीय न्यायाधीशों की नियुक्ति के बारे में अंतिम फैसला करते हैँ। बड़ी अदालतों के जज को हटाने की प्रक्रिया लंगभग असंभव है। जस्टिस रामास्वामी के केस में इस बात को पूरे देश ने देखा है। और सरकार को इस पर एतराज भी नहीं है।

सरकार और पूरे पॉलिटिकल क्लास को इस बात पर भी एतराज नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में जोडी़ गई नवीं अनुसूचि को न्यायिक समीक्षा के दायरे में शामिल कर दिया है। ये अनुसूचि संविधान में इसलिए जोड़ी गई थी ताकि लोक कल्याण के कानूनों को न्यायिक समीक्षा से बचाया जा सके। आज आप देश की बड़ी अदालतों से सामाजिक न्याय के पक्ष में किसी आदेश की उम्मीद नहीं कर सकते। सरकार को इसपर एतराज नहीं है क्योंकि सरकार खुद भी यथास्थिति की रक्षक है और अदालतें देश में ठीक यही काम कर रही हैँ। कई दर्जन मामलों में मजदूरों और कर्मचारियों के लिए नो वर्क-नो पे का आदेश जारी करने वाली अदालत, आरक्षण के खिलाफ हड़ताल करके मरीजों को वार्ड से बाहर जाने को मजबूर करने वाले डॉक्टरों को नो वर्क का पेमेंट करने को कहती है। और जब स्वास्थ्य मंत्रालय कहता है कि अदालत इसके लिए आदेश दे तो सुप्रीम कोर्ट कहता है कि इन डॉक्टरों को वेतन दिया जाए,लेकिन हमारे इस आदेश को अपवाद माना जाए। यानी इस आदेश का हवाला देकर कोई और हड़ताली अपने लिए वेतन की मांग नहीं कर सकता है। ये आदेश एक ऐसी संस्था देती है जिस पर ये देखने की जिम्मेदारी है कि देश कायदे-कानून से चल रहा है। अदालतों में भ्रष्टाचार के मामले आम है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशन की इस बारे में पूरी रिपोर्ट है। लगातार ऐसे किस्से सामने आ रहे हैं। लेकिन उसकी रिपोर्टिंग मुश्किल है। तो ऐसे में निरंकुश होती न्यापालिका के खिलाफ आप क्या कर सकते हैँ। तेलुगू कवि और राजनीतिक कार्यकर्ता वरवर राव ने हमें एक कार्यक्रम में बताया था कि इराक पर जब अमेरिका हमला करने वाला था तो वहां के युद्ध विरोधियों ने एक दिन खास समय पर अपने अपने स्थान पर खड़े होकर आसमान की ओर हाथ करके कहा था- ठहरो।
ऐसा करने वाले लोगों की संख्या कई लाख बताई जाती है। इससे अमेरिकी हमला नहीं रुका। लेकिन ऐसा करने वाले बुद्धिजीवियों के कारण आज कोई ये नहीं कह सकता कि जब अमेरिका कुछ गलत करने जा रहा था तो वहां के सारे लोग बुश के साथ थे। क्या हममे है वो दम ?

अदालतें पवित्र गाय नहीं हैं : संजय तिवारी

आज मिड-डे के दो पत्रकारों, एक कार्टूनिस्ट और मिड डे के प्रकाशक को दिल्ली उच्च न्यायालय ने चार-चार महीने की सजा सुनाई. हालांकि 10-10 हजार के निजी मुचलके पर उन्हें छोड़ दिया गया और अब वे 28 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट में अपील करेंगे, फिर भी सवाल उठता है कि क्या न्यायपालिका पवित्र गाय हैं जिन पर अंगुली नहीं उठाई जा सकती?

यह बहुत गंभीर घटना है. इसलिए नहीं कि किसी पत्रकार को सजा सुनाई गयी है. बल्कि इसलिए कि ऐसे पत्रकारों को सजा सुनाई गयी है जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ जांच-पड़ताल की और ऐसे तथ्य सामने लाये जिससे दिल्ली में हुई सीलिंग के सवाल पर सब्बरवाल शक के घेरे में आते हैं. उनके बेटों ने जिस तरह से पैसा बनाया है उसकी खोजबीन मिड-डे के पत्रकारों ने ही की थी. आज देश की कई हिन्दी अंग्रेजी पत्रिकाएं इस बात को छाप चुकी हैं कि किस तरह सब्बरवाल दिल्ली में सीलिंग के आदेश दे रहे थे और उनके बेटे भवन निर्माण उद्योग में अपनी पैठ बना रहे थे.
(पूरी रपट).
क्या इंसान की बनाई किसी व्यवस्था पर इंसान सावल नहीं खड़े कर सकता? अगर किसी अदालत के निर्णय से मेरे जीवन पर फर्क पड़ता है तो क्या मुझे हक नहीं है कि मैं उसका विरोध करूं? और फिर अदालतें कितनी "माननीय" रह गयी हैं इस बारे में विचार करने की जरूरत है. ऐसे कुछ निर्णयों की जांच-पड़ताल होनी चाहिए जो जनभावना के खिलाफ होते हैं. उन निर्णयों के पीछे कौन से तत्व काम कर रहे होते हैं इस बारे में लोगों को पता लगना चाहिए. हाईकोर्ट कहता है कि पत्रकारों और अखबार के प्रकाशक ने लक्ष्मणरेखा पार कर दी है. क्या हाईकोर्ट बताएगा कि वह लक्ष्मणरेखा क्या है?

आखिर क्या कारण हैं कि सब्बरवाल पर पत्रकारों द्वारा उठाये गये सवालों पर जांच करने की बजाय उलटे पत्रकारों को ही दोषी माना जा रहा है. ऐसे दौर में जब पत्रकारिता खुद अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है पत्रकारों को इस तरह सजा देना मनोबल को तोड़ता है. ऐसे में जब पत्रकारिता भी पीआर एजंसियों के हवाले होती जा रही है, किसी ऐसे पत्रकार को मानहानि का दोषी करार दे देना जो एक अदालती फैसले की असली सच्चाई को सबके सामने लाता है, कहीं से स्वागतयोग्य नहीं है.

शुक्रवार, 21 सितंबर 2007

मत कहो आकाश में कोहरा घना है! : सत्येंद्र रंजन

जिस तरीके से इस पूरी घटना को पेश किया गया उससे यह धारणा बनती है कि जैसे सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक सदस्य के गलत मकसद की पूर्ति के लिए अपना इस्तेमाल होने दिया। इससे इस संस्था से आम लोगों का भरोसा उठाने करने की कोशिश की गई है- दिल्ली हाई कोर्ट ने मिड डे अखबार के दो पत्रकारों, एक कार्टूनिस्ट और प्रकाशक को सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का दोषी ठहराते हुए यह बात कही है। मसला दिल्ली में सीलिंग संबंधी सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच के फैसलों का था जिसके एक सदस्य पूर्व प्रधान न्यायाधीश वाईके सब्बरवाल थे। आरोप यह है कि इन फैसलों से न्यायमूर्ति सब्बरवाल के बेटों को फायदा पहुंचा, जो उनके सरकारी निवास में रहते हुए अपना कारोबार चला रहे थे। हाई कोर्ट ने इस संबंध में मिड डे अखबार में छपी रिपोर्ट की सच्चाई पर गौर करने के बजाय अखबार को सुप्रीम कोर्ट की नीयत पर शक करने का दोषी ठहरा दिया।

लेकिन यह पहला मामला नहीं है, जब न्यायपालिका ने उसे आईना दिखाने की कोशिश पर ऐसा रुख अख्तियार किया हो। अभी कुछ ही समय पहले ज़ी न्यूज चैनल के पत्रकार को खुद सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना के ही मामले में माफी मांगने का आदेश दिया। उस पत्रकार का दोष यह था कि उसने गुजरात की निचली अदालतों में जारी भ्रष्टाचार का खुलासा करने के लिए स्टिंग ऑपरेशन किया। वहां पैसा देकर राष्ट्रपति और खुद तब के सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ उसने वारंट जारी करवा दिए।

कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय सुनाया कि किसी न्यायिक अधिकारी के गलत फैसला देने पर उसके खिलाफ अनुशासन की कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती, न ही उसे सजा दी जा सकती है। यह मामला उत्तर प्रदेश के एक ऐसे न्यायिक अधिकारी के मामले में आया, जिस पर घूस लेने का आरोप लगा था। इसकी जांच कराई गई। इसके आधार पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उस न्यायिक अधिकारी की दो वेतनवृद्धि रोकने और पदावनति करने की सजा सुनाई। सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ इस फैसले को खारिज कर दिया, बल्कि हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील करने वाले न्यायिक अधिकारी को जिला जज के रूप में नियुक्त करने और उसके खिलाफ कार्यवाही की अवधि के सभी वेतन-भत्तों का भुगतान करने का आदेश भी दिया। (द हिंदू, १९ अप्रैल २००७)

इसके पहले हाई कोर्टों में दो जजों की नियुक्ति के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति की आपत्तियों को नजरअंदाज कर दिया। इनमें न्यायमूर्ति एसएल भयाना के खिलाफ जेसिका लाल हत्याकांड में दिल्ली हाई कोर्ट ने कड़ी टिप्पणियां की थीं। उधर न्यायमूर्ति जगदीश भल्ला पर रिलायंस एनर्जी को लाभ पहुंचाने का आरोप था। राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम से इन दोनों की तरक्की पर पुनर्विचार करने की अपील की थी। लेकिन जजों के इस समूह यानी कॉलेजियम ने इन आपत्तियों को नजरअंदाज करते हुए न्यायमूर्ति भयाना को दिल्ली हाई कोर्ट का जज नियुक्त कर दिया। न्यायमूर्ति भल्ला को छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया।

इन फैसलों ने अवमानना संबंधी कानून और लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायपालिका की जिम्मेदारी और भूमिकाओं पर नई बहस खड़ी कर दी है। जहां तक नियुक्तियों में कार्यपालिका के आगे न झुकने की बात है तो उसे सामान्य स्थितियों में इसे एक स्वस्थ परिघटना माना जाता। तीन दशक पहले जब कार्यपालिका सर्वशक्तिमान दिखाई देती थी और सरकार जजों की नियुक्ति अपनी सुविधा से करती थी, उस समय न्यायिक स्वतंत्रता की ऐसी मांग देश में पुरजोर तरीके से उठी। एक लिहाज से यह संतोष की बात हो सकती है कि आखिरकार अब न्यायपालिका ने भारत में एक स्वतंत्र हैसियत बना ली है। राजनीतिक विवादों के बीच न्यायिक निष्पक्षता किसी भी लोकतंत्र की जरूरी शर्त है और मौजूदा न्यायिक स्वतंत्रता इसे सुनिश्चित कर सके तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी।

लेकिन परेशान करने वाली बात यह है कि न्यायपालिका में अपनी स्वतंत्रता जताने के साथ-साथ राज्य-व्यवस्था के दूसरे समकक्ष अंगों के कार्य और अधिकार क्षेत्र में दखल देने की प्रवृत्ति बढ़ती गई है। इसे न्यायिक सक्रियता का नाम दिया गया है। यानी ऐसी सक्रियता जो दूसरे अंगों में मौजूद बुराइयों और लापरवाहियों को दूर करने के लिए एक मुहिम के रूप में शुरू की गई है। जन प्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार और जन समस्याओं के प्रति उनके उदासीन रवैये पर जज अक्सर कड़ी फटकार लगाते हैं, जिसे मीडिया में खूब जगह मिलती रही है। जज कानून के साथ-साथ अक्सर नैतिकता को भी परिभाषित करते सुने गए हैं। इसका एक लाभ यह हुआ कि शासन के विभिन्न अंगों के उत्तरदायित्व को लेकर जनता के बड़े हिस्से में जागरूकता पैदा हुई है। इससे सार्वजनिक जीवन में आचरण की कुछ कसौटियां आम लोगों के दिमाग में कायम हुई हैं।यह बहुत स्वाभाविक है कि लोग उन कसौटियों को न्यायपालिका पर भी लागू करना चाहें। आखिर लोकतंत्र की आम धारणा और अपनी संवैधानिक व्यवस्था में न्यायपालिका भी जनता की एक सेवक है। उसके सुपरिभाषित कार्य और अधिकार क्षेत्र हैं। लोगों को यह अपेक्षा रहती है कि शासन का यह अंग अपने अधिकार क्षेत्र में रहते हुए अपने इन कर्त्तव्यों का सही ढंग से पालन करे। साथ ही जब सार्वजनिक आचरण की अपेक्षाओं को खुद न्यायपालिका ने काफी ऊंचा कर दिया है, तो उस कसौटी पर खुद वह भी खरा उतरे।देश के कई प्रधान न्यायाधीश न्यायपालिका के निचले स्तर में भ्रष्टाचार मौजूद होने की बात स्वीकार कर चुके हैं। ऐसे में अगर निचली अदालत के किसी न्यायिक अधिकारी पर लगे इल्जाम को जांच में सही पाया गया और हाई कोर्ट ने उस आधार पर सजा सुनाई तो सुप्रीम कोर्ट ने उसे खारिज कर कैसी मिसाल कायम की, इसे समझ पाना मुश्किल है। अगर किन्ही जजों की, भले वो निर्दोष हों, लेकिन सार्वजनिक जीवन में उनकी इतनी नकारात्मक छवि बनी हो कि राष्ट्रपति को उनकी तरक्की पर एतराज जताना पड़े, तो क्या उनके पक्ष में मजबूती से खड़ा रहना न्यायिक स्वतंत्रता को जताने की सही मिसाल माना जाएगा? निचली अदालतों में भ्रष्टाचार का खुलासा क्या कोर्ट की अवमानना है? और किसी जज के फैसले पर अगर संदेह पैदा हो, मीडिया के पास इस बारे में कुछ दस्तावेज हों तो क्या उन्हें छापना गुनाह है? इन सभी घटनाओं के संदर्भ में सबसे प्रासंगिक सवाल यह है कि क्या इन सब कदमों से न्यायपालिका की इज्जत बढ़ रही है?

न्यायिक सक्रियता शुरू होने और उसे जनता के एक बड़े हिस्से में मिले समर्थन की परिस्थितियों पर अगर गौर करें तो खुद न्यायपालिका से जुड़े लोगों के लिए यह सवाल अहम हो जाता है। केंद्र में राजनीतिक अस्थिरता और न्यायिक सक्रियता एक ही दौर की परिघटनाएं हैं। १९९० के दशक में भारतीय समाज एक बड़ी उथल-पुथल से गुजरा। एक तरफ सामाजिक न्याय की बढ़ती आकांक्षा से कमजोर तबकों में मजबूत गोलबंदी हुई और दूसरी तरफ उसकी प्रतिक्रिया में शासक समूहों ने उग्र दक्षिणपंथी रुख अख्तियार किया। इस टकराव का एक परिणाम राजनीतिक अस्थिरता के रूप में सामने आया। किसी एक पार्टी को बहुमत मिलना लगातार दूर की संभावना बनता गया। ऐसे में केंद्र में कमजोर सरकारों का दौर आया, और संसद में बिखराव ज्यादा नजर आने लगा। नतीजा यह हुआ कि शासन व्यवस्था के इन दोनों अंगों के लिए अपने अधिकार को जताना लगातार मुश्किल होता गया। ऐसे दौर में न सिर्फ न्यायपालिका बल्कि चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं ने भी अपनी नई भूमिका बनाई। इस दौर में राजनेताओं की अकुशलता और शासन व्यवस्था में भ्रष्टाचार ज्यादा खुलकर सामने आने लगे, जिससे आम जन में विरोध और नाराजगी का गहरा भाव पैदा हुआ। ऐसे में जब न्यायपालिका ने भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्ती बरती या शासन के आम कार्यों में दखल देना शुरू किया तो मोटे तौर पर लोगों ने उसका स्वागत किया।

यह बात ध्यान में रखने की है कि न्यायपालिका इसलिए लोगों का समर्थन पा सकी क्यों कि आम तौर पर उसकी एक अच्छी छवि लोगों के मन में मौजूद रही है। अगर यह छवि मैली होती है तो फिर न्यायपालिका वैसे ही जन समर्थन की उम्मीद नहीं कर सकती। वह छवि बनी रहे, इसके लिए अंग्रेजी की यह कहावत शायद मार्गदर्शक हो सकती है कि सीज़र की पत्नी को शक के दायरे से ऊपर होना चाहिए। यह विचारणीय है कि क्या हर हाल में, न्यायपालिका के हर अंग का बचाव ऐसी छवि को बनाए रखने में सहायक हो सकता है?

यहां हम इस बात को नहीं भूल सकते कि न्यायिक सक्रियता के इसी दौर में न्यायपालिका की वर्गीय प्राथमिकताओं पर बहस तेज होती जा रही है। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की तरफ से कराए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष रहा है कि न्यायपालिका ने प्रगतिशील फैसलों और जन हित याचिकाओं पर सशक्त पहल के दौर को अब पलट दिया है और उसने जन विरोधी लबादा ओढ़ लिया है। इस अध्ययन में कहा गया है- हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों ने कई जन विरोधी फैसले दिए हैं। इनसे उनकी प्राथमिकताओं में पूरा बदलाव जाहिर हुआ है और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ है। (डीएनए, १६ अप्रैल, २००७). शायद इससे कड़ी आलोचना और कोई नहीं हो सकती।

बौद्धिक क्षेत्र में न्यायपालिका की इन प्राथमिकताओं को भारतीय लोकतंत्र में चल रहे विभिन्न हितों के व्यापक संघर्षों की पृष्ठभूमि में देखा जा रहा है। दरअसल, जिस दौर में न्यायिक सक्रियता शुरू हुई, उसी दौर में राजनीतिक सत्ता के ढांचे में बदलाव की ऐतिहासिक प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ी है। सदियों से दबाकर रखे गए समूहों ने लोकतंत्र की आधुनिक व्यवस्था के तहत मिले मौकों का फायदा उठाते हुए अपनी राजनीतिक शक्ति विकसित की और यह शक्ति आज किसकी सरकार बनेगी, यह तय करने में काफी हद तक निर्णायक हो गई है। एक व्यक्ति, एक वोट और एक वोट, एक मूल्य के जिस सिद्धांत को भारतीय संविधान में अपनाया गया, उसका असली असर दिखने में कुछ दशक जरूर लगे, लेकिन उससे एक ऐसी प्रक्रिया शुरू हुई, जिसने भारतीय राजनीति का स्वरूप बदल दिया है। राज सत्ता पर बढ़ते अधिकार के साथ अब ये समूह सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में भी अपने लिए अधिकार और विशेष अवसरों की मांग कर रहे हैं। जाहिर है, जिनका सदियों से इन संसाधनों पर वर्चस्व है, वो आसानी से समझौता करने को तैयार नहीं हैं।

राजनीतिक रूप से लगातार कमजोर पड़ते जाने के बाद इन तबकों की आखिरी उम्मीद अब कुछ संवैधानिक संस्थाओं से बची है। इसलिए कि इन संस्थाओं में आम तौर पर अभिजात्य वर्गों के लोग ही आते हैं, और उनका अपना नजरिया भी यथास्थितिवादी होता है। सार्वजनिक नीतियों के मामले में न्यायपालिका के अगर पिछले एक दशक के रुझान पर नजर डाली जाए तो इस वर्गीय नजरिए की वहां भी काफी झलक देखी जा सकती है। मौटे तौर पर यह रुझान कुछ ऐसा रहा हैःमजदूर और वंचित समूहों के अधिकारों को न्यायिक फैसलों से संकुचित करने की कोशिश की गई है। बंद और आम हड़ताल को गैर-कानूनी करार दिया गया है और चार साल पहले तमिलनाडु के सरकारी कर्मचारियों की हड़ताल के मामले में तो यह फैसला दे दिया गया कि कर्मचारियों को हड़ताल का अधिकार ही नहीं है। इस तरह मजदूर तबके ने लंबी लड़ाई से सामूहिक सौदेबाजी का जो अधिकार हासिल किया, उसे कलम की एक नोक से खत्म कर देने की कोशिश हुई। कर्मचारियों और मजदूरों के प्रबंधन से निजी विवादों के मामले में लगभग यह साफ कर दिया गया है कि मजदूरों को कोई अधिकार नहीं है, प्रबंधन कार्य स्थितियों को अपने ढंग से तय कर सकता है। अगर इसके साथ ही विस्थापन, विकास और पूंजीवादी परियोजनाओं के मुद्दों को जोड़ा जाए तो देखा जा सकता है कि कैसे न्यायपालिका के फैसलों से मौजूदा शासक समूहों के हित सधे हैं।अब अगर सामाजिक और राजनीतिक मामलों पर गौर करें तो संवैधानिक संस्थाओं की तरफ से न सिर्फ लोकतंत्र को सीमित करने बल्कि कई मौकों पर लोकतंत्र के रोलबैक की कोशिश होती हुई भी नजर आती है। इसकी एक बड़ी मिसाल शिक्षा संस्थानों में आरक्षण का मामला है। वरिष्ठ वकील एमपी राजू ने इस आरक्षण पर रोक लगाए जाने के बाद लेख में लिखा- यह फैसला काफी हद तक प्रतिगामी भेदभाव के अमेरिकी सिद्धांत पर आधारित है। यह सिद्धांत यह है कि विशेष सुविधाएं देने के लिए जो वर्गीकरण किया जाएगा, उससे उन वर्गों से बाहर रह गए तबकों को नुकसान नहीं होना चाहिए। इस प्रकरण में इसका मतलब है कि अगड़ी जातियों को नुकसान नहीं होना चाहिए। इससे यह सवाल जरूर उठता है कि क्या न्यायपालिका ऊंची जातियों और अभिजात्य वर्गों के हित-रक्षक की भूमिका में सामने आ रही है? और क्या संसद और सरकारों के प्रति उसका कड़ा, कई बार इन अंगों के प्रति अपमानजनक सा लगने वाला उसका नजरिया असल में इसलिए ऐसा है कि लोकतंत्र के इन अंगों में कमजोर वर्गों का अब निर्णायक प्रतिनिधित्व होने लगा है?

इन सवालों पर न्यायपालिका से जुड़े अंगों और व्यापक रूप से पूरे देश में आज जरूर बहस होनी चाहिए। आधुनिक लोकतंत्र स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के सर्वमान्य मूल्यों और शक्तियों के पृथक्करण के बुनियादी सिद्धांत पर टिका हुआ है। इसमें कोई असंतुलन पूरी व्यवस्था के लिए गंभीर चुनौतियां पैदा कर सकता है। आजादी के बाद शुरुआती दशकों में कार्यपालिका के वर्चस्व और केंद्र की प्रभुता की वजह से कई विसंगतियां पैदा हुईं, जिससे देश के कई हिस्सों में राजनीतिक हिंसा की स्थितियां और अलगाव की भावना पैदा हुई। विकेंद्रीकरण और आम जन की लोकतांत्रिक अपेक्षाओं को प्रतिनिधित्व देने वाली नई शक्तियों के उभार से वह असंतुलन काफी हद तक दूर होता नजर आया है। लेकिन इस नए दौर में न्यायपालिका का रुख नई चिंताएं पैदा कर रहा है। ये चिंताएं तभी दूर हो सकती हैं, जब न्यायपालिका सीज़र की पत्नी वाली कहावत पर खरी उतरते हुए तमाम तरह के संदेहों से ऊपर बनी रही रहे। यानी उससे जुड़े लोगों की अपनी छवि भी संदेह से परे रहे और उसके वर्गीय नजरिए पर भी सवाल न उठेँ। फिलहाल, मिड डे के मामले में फैसले से दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां ही याद आती हैं- मत कहो आकाश में कोहरा घना है, ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
साभार- इंकलाब

मंगलवार, 11 सितंबर 2007

जज, माफिया, जमीन-आमीन ! : राकेश सिंह

पिछले दिनों न्यायिक जवाबदेह समिति ने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वाई के सभरवाल को एक पत्र लिखा था कि जज जगदीश भल्ला की पत्नी रेनू भल्ला ने नोएडा में जो जमीन खरीदी है, उसकी स्वतंत्र जांच कराई जाए। यह जमीन पांच लाख में खरीदी गई, जबकि मामले की जांच कर रहे एसडीएम और एडीएम नोएडा ने इसकी कीमत करीब सात करोड़ बताई है। इसके बावजूद बिना जांच के जगदीश भल्ला को केरल उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायधीश नियुक्त करने की संस्तुति कर दी गई। हमारी जानकारी के मुताबिक सरकार ने आईबी से जांच कराई, जिसकी रिपोर्ट भी भल्ला के खिलाफ थी। इसी रिपोर्ट के आधार पर राष्ट्रपति ने जगदीश भल्ला को केरल का मुख्य न्यायधीश नियुक्त करने की संस्तुति पर केंद्र से पुनर्विचार करने को कहा था। 'ये पंक्तियां उस पत्र की हैं जो पूर्व विधिमंत्री शांति भूषण ने मुख्य न्यायधीश के जी बालकृष्णन को 20 मार्च को लिखा। न्यायिक जवाबदेह समिति ने इस मसले पर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी पत्र लिखा। इतने पर भी जगदीश भल्ला के नाम की संस्तुति छत्तीसगढ़ के मुख्य न्यायधीश पद के लिए दी गई। सवाल यह उठता है कि आरोप दर आरोप के बाद भी उन्हें मुख्य न्यायधीश बनाने की संस्तुति कैसे की जाती रही? न्यायधीश वाई के सभरवाल का तर्क था कि इन आरोपों के संदर्भ में इलाहाबाद के बार एसोसिएशन के नेताओं और वकीलों से बात की गई, जिन्होंने इन आरोपों को बेबुनियाद बताया।

सभरवाल के इस तर्क को कपिल सिब्बल के आरोपों के आइने में देखा जाना चाहिए। सिब्बल ने 29 अप्रैल को मुलायम सिंह यादव पर विशेषाधिकार का दुरुपयोग कर कुछ खास लोगों को नोएडा में भूमि आबंटित कर उपकृत करने का आरोप लगाया था। मुलायम से जमीन का तोहफा लेने वालों में जो नाम सिब्बल ने गिनाए उनमें न्यायमूर्ति सभरवाल की बेटी शीबा सभरवाल भी हैं। इसके अलावा इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायधीश सुबोध श्रीवास्तव की रिश्तेदार पूनम श्रीवास्तव और इलाहाबाद के ही न्यायधीश उदय कृष्ण धाओन शामिल हैं। इन नामों में जगदीश भल्ला के पुत्र आरोही भल्ला भी हैं। नोएडा मे भूमि का आवंटन 2005 में हुआ था। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बाद में इन आवंटनों को रद्द कर दिया था। हाईकोर्ट ने सीबीआई जांच के आदेश भी दिए थे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने मामले की जांच संबंधी हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी थी। न्यायमूर्ति सभरवाल के ही कार्यकाल में सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद सीलिंग जारी रही। इसी सीलिंग के कारण नगर निगम चुनावों में कांग्रेस खेत रही। गौरतलब है कि तीन सदस्यीय जिस कोलेजियम ने जगदीश भल्ला को तमाम आरोपों के बावजूद मुख्य न्यायाधीश पद देने की संस्तुति की उसमें वाई के सभरवाल भी थे।

न्यायिक जवाबदेह समिति की तरफ से इस पूरे मामले को उठाने वाले पूर्व विधिमंत्री शांति भूषण कहते हैं कि 'दरअसल विधिमंत्री हंसराज भारद्वाज, जगदीश भल्ला की तरफदारी कर रहे हैं। भारद्वाज अब यह प्रयास कर रहे हैं कि छत्तीसगढ़ के मुख्य न्यायाधीश को केरल भेज दिया जाए, जिससे भल्ला को वहां का कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश बनाया जा सके।' शांति भूषण कहते हैं कि हंसराज भारद्वाज और भल्ला के लड़के साथ- साथ वकालत करते हैं इसलिए आरोपों पर पर्दा डाला जा रहा है।

जगदीश भल्ला पर लगे आरोपों पर जरा गौर फरमाइए। 28 मार्च 2005 को गौतमबुध्द नगर (नोएडा) के पुलिस उपाधीक्षक उदय शंकर ने जिलाधिकारी को एक पत्र लिखा। पुलिस उपाधीक्षक उदयशंकर मोती गोयल और नौ अन्य मामलों की विवेचना कर रहे थे। यह पत्र भी उसी विवेचना से संबंधित था। पत्र में जो कुछ लिखा गया, वह चौंकाने वाला था। इसमें गलत तरीके से कुछ प्रभावशाली लोगों को जमीन उपलब्ध कराए जाने की बात कहीं गई। रेनू भल्ला जगदीश भल्ला की पत्नी हैं। जगदीश भल्ला उस समय इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज थे। लेकिन यहां रेनू भल्ला का परिचय के. के. भल्ला की पुत्री के रूप में कराया गया। जमीन के इस गोरखधंधे का मुख्य सूत्रधार मोती गोयल था। ग्राम सभा की जमीन को मोती गोयल ने राजस्व रिकार्ड में हेराफेरी करके बेचा। मोती गोयल का यह पहला कारनामा नहीं था। उसने नोएडा में हजारों करोड़ की जमीन फर्जीवाड़ा किया है। वह राजस्व विभाग के अधिकारियों की मदद से शामलात भूमि पर फर्जी नाम दर्ज कराकर बेचता था। उसके इस काम में कई प्रशासनिक अधिकारी भी शामिल होते थे। ऐसे ही अधिकारियों की छत्रछाया में वह पलता और बढ़ता रहा। एक मामले में तो दो अधिकारी निलंबित भी हो चुके हैं। इस मामले का खुलासा तब हुआ जब मोती गोयल ने पूर्व मंत्री रामपाल सिंह को भी फर्जी तरीके से जमीन बेची।
रामपाल की शिकायत पर मोती गोयल के खास आदमी महावीर को गिरफ्तार किया गया। महावीर की गिरफ्तारी के बाद परद दर परत मामला खुलता गया।

पुलिस उपाधीक्षक उदय शंकर के पत्र पर जिलाधिकारी ने उप जिलाधिकारी सदर को तथ्यों के परीक्षण के लिए लिखा। उप जिलाधिकारी ने अपनी रिपोर्ट जिलाधिकारी को 21 जून 2005 को सौंपी। इस रिपोर्ट में रेनू भल्ला और भू-माफिया की सांठ- गांठ को दर्शाया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक ग्राम शाहपुर गोवर्धनपुर खादर में भू-माफिया मोती गोयल, उसकी पत्नी बीना गोयल, चरन सिंह, हरीश नागर, जितेंद्र माहेश्वरी से भूमि खरीदने वाले लोगों में रेनू भल्ला (पुत्री के. के. भल्ला निवासी 36 उदय पार्क, द्वितीय फ्लोर, नई दिल्ली) भी थीं। यह भूमि उन्होंने काफी सस्ते में खरीदी। रेनू भल्ला पुत्री के. के. भल्ला को हरीश नागर पुत्र चरन सिंह ने 4000 वर्ग मीटर जमीन बेची, जिसकी कीमत 2002 में चार लाख ली गई। हालांकि, यह जमीन नोएडा एक्सप्रेस- वे के किनारे सेक्टर- 132 के पास है। रिपोर्ट में ही कहा गया है कि इस जमीन की वास्तविक कीमत दस हजार रुपए प्रति वर्ग मीटर रही होगी। आज यहां 15 से 18 हजार रुपए प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से जमीन बिक रही है।

इन्हीं रिपोर्टों की तस्दीक अपर जिला अधिकारी राजेश कुमार की एक रिपोर्ट भी करती है। अपर जिला अधिकारी इससे संबंधित एक अन्य मामले की जांच कर रहे थे जो जिलाधिकारी को सौंपी गई थी। उनकी रिपोर्ट में भी रेनू भल्ला और भू- माफियाओं के गठजोड़ को उजागर किया गया है। अपर जिलाधिकारी की रिपोर्ट कहती है- 'ताज एक्सप्रेस एलायमेंट मार्च 2003 में फाइनल होने के फलस्वरूप इस ग्राम की अधिकांश भूमि का हस्तांतरण टुकड़ों में किया गया है। तत्समय यह भूमि राज्य सरकार में निहित होनी चाहिए थी, लेकिन दाखिल खारिज करने वाले न्यायालयों ने बजाय धारा 166/167 यूपी जमींदारी अधिनियम 1951 के तहत भूमि राज्य सरकार में निहित करने की व्यवस्था देने के, अदम पैरवी में खारिज कर खरीददारों को अप्रत्यक्ष रूप से लाभ पहुंचाया।' खरीददारों में रेनू भल्ला भी थीं। सवाल उठता है कि कि भू- माफिया ने रेनू भल्ला को इतनी सस्ती जमीन क्यों दे दी? खरिज दाखिल न्यायालय में भी काफी मेहरबान रहा। यह भी सवाल बरकरार है कि इसकी एवज में आखिर भू- माफिया का क्या काम हुआ होगा? न्यायमूर्ति जगदीश भल्ला पर रिलायंस एनर्जी के एक मामले में भी दायरे से बाहर जाकर देखने का आरोप है। उस मामले में भी सवाल उठे थे कि आखिर उसमें न्यायमूर्ति भल्ला क्यों रुचि ले रहे हैं?

बहरहाल, घपले के छींटे सीधे जगदीश भल्ला पर भी पड़े। गोमती नगर लखनऊ में भू-खंडों के आवंटन में भी जगदीश भल्ला को नियम के विपरीत विशेष परिस्थितियों में भू-खंड आवंटित किया गया। आरोपों का खुलासा एक पत्र से होता है। यह पत्र सुमित कुमार की तरफ से निखिल श्रीवास्तव ने सचिव लोकायुक्त ज्ञानचंद्रा को 22/7/005 को लिखा। पत्र में सुमित कुमार ने ए-5/25 विनीत खण्ड, गोमती नगर की भूमि को लेकर लिखा था। उन्होंने इस पत्र में दावा किया है कि उन्हें फर्जी तरीके से डिफाल्टर घोषित किया गया, जबकि 5 सितंबर 2003 को लखनऊ विकास प्राधिकरण सुमित सिंह के पक्ष में रजिस्ट्री करने को तैयार था। इस मामले में सचिव लोकायुक्त ने सचिव लोकायुक्त प्रशासन को पत्र लिखकर भू-खंड संख्या ए-5/25 विनीत खण्ड की रजिस्ट्री की कार्यवाही स्थगित करने को कहा, क्योंकि इस मामले की जांच लोकायुक्त कर रहे थे। जिस भू-खंड का यह मामला है उसका संबंध जगदीश भल्ला से भी है। 23 सितंबर 2003 को 25 हजार रुपए जमा कराकर पंजीकरण कराया गया। यह पंजीकरण धनराशि 'ए' प्रकार के भू-खंड के आवंटन के लिए पर्याप्त नहीं है। 24 सितंबर 2003 को विशेष परिस्थितियों में उपाध्यक्ष ने 'ए' प्रकार का भूखंड संख्या ए-5/410 विराज खण्ड में आवंटित किया। फिर न्यायमूर्ति जगदीश भल्ला के पीए मोइनुल हसन ने 2 नवंबर को एक पत्र लिखा। पत्र के क्रम में 4 नवंबर को भू-खंड नंबर ए-5/25 विनीत खंड में बिना किसी शुल्क परिवर्तित और समायोजित कर दिया।

न्यायमूर्ति भल्ला को विशाल खण्ड में भी भूमि आवंटित है। विशाल खंड में जब भू-खंड आवंटित किया गया तब उत्तर प्रदेश शासन के स्थायी अधिवक्ता थे, जबकि प्राधिकरण एक व्यक्ति को एक ही भू-खंड का आवंटन करता है। जगदीश भल्ला को विशेष परिस्थितियों में दूसरा आवंटन भी किया गया। आखिर जज साहब को कितने भू-खण्ड चाहिए? इसी तरह उनके पुत्र आरोही भल्ला का भू-खण्ड भी बिना परिवर्तित शुल्क के विनय खण्ड में समायोजित किया गया। आरोही को पहले विराज खण्ड में भू-खण्ड संख्या 3/214 आवंटित किया गया। बाद में उनके प्रार्थना पत्र पर तत्कालीन उपाध्यक्ष ने बिना परिवर्तन शुल्क के विनय खण्ड में भू-खण्ड संख्या- 5/20 से पुन: भू-खण्ड संख्या 3/242 में बिना परिवर्तन शुल्क के परिवर्तित कर दिया गया। ऐसा भी नहीं कि लखनऊ विकास प्राधिकरण पर सिर्फ बाप और बेटे पर ही फिदा होने का आरोप है। जगदीश भल्ला की बहन मनोरमा शर्मा, बहनोई अशोक भनोट पर भी मेहरबानी करने का उस पर आरोप है।

इस पूरे मामले को 'कमेटी आन जुडिशल अकाउंटबिलिटी' ने गंभीरता से लिया। कमेटी ने तहकीकात करने के बाद जगदीश भल्ला के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला दर्ज करने के लिए सुप्रीम कोर्ठ के मुख्य न्यायधीश को लिखा। मामला दर्ज करने की गुजारिश करने वालों में राम जेठमलानी और राजिंदर सच्चर जैसे लोग भी शामिल थे। शांति भूषण की नजर में यह मामला न्यायपालिका की सुचिता और पारदर्शिता को प्रभावित करेगा। इसलिए ऐसे मामलों में एफआईआर दर्ज कर जांच होनी चाहिए। शांति भूषण उप जिला अधिकारी और अपर जिला अधिकारी की रिपोर्ट के बाद नोएडा मामले की जांच जरूरी मानते हैं, जिसके अनुसार सात करोड़ की जमीन मात्र पांच लाख में बेची गई। यह जमीन भी ग्राम सभा की थी। भू-माफिया का किसी हाईकोर्ट के जज की पत्नी को उपकृत करना चिंता का विषय है। सीलिंग और सेज जैसे मसलों पर अदालती रुख के बाद लोग यह जानना चाहेंगे कि न्यायालय ऐसे मामलों में क्या करता है? क्या कारण है कि शांति भूषण के तमाम प्रयासों के बाद भी कोई उनकी बात पर कान नहीं धर रहा? लोग यह भी जानना चाहेंगे कि आखिर इस पूरे मामले में क्या हुआ।

शांति भूषण अपने पत्रों में इस मामले को नजर अंदाज न किए जाने का अनुरोध करते रहे, लेकिन उनकी बात अनसुनी की जाती रहीं। ऐसे मामले लोगों के लिए महत्वपूर्ण होते है। इससे लोगों में न्याय व्यवस्था के प्रति विश्वास की पुष्टि होती है। हर जगह से निराश होने के बाद लोग न्याय की गुहार अदालत में लगाते हैं। जिनके सामने वह गुहार लगाते हैं यदि उन पर ही घपलों, घोटालों के छींटे पड़ते हों तो उस व्यवस्था से जुड़े लोगों का चिंतित होना लाजिमी है। ऐसी स्थिति में लोग यह तो जानना ही चाहेंगे कि आखिर क्या कारण है कि 'न्यायिक जवाबदेह समिति' के पत्रों पर ध्यान नहीं दिया गया? लोग यह भी जानना चाहेंगे ही जमीन के इस गोरखधंधे में और कौन- कौन से प्रभावशाली लोग शामिल हैं?
साभार- प्रथम प्रवक्ता

सोमवार, 10 सितंबर 2007

अन्यायमूर्ति सब्बरवाल?

उन दिनों दिल्ली में खूब धरने-प्रदर्शन हो रहे थे. कहें तो हाहाकरा मचा हुआ था. एक के बाद एक अदालती आदेशों के कारण दिल्ली सरकार, प्रशासन, पुलिस, एमसीडी, व्यापारी और हर खासो-आम आदमी अपने उजड़ने के खौफ से खौफजदा था. 16 फरवरी 2006 को सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश वाई के सब्बरवाल ने सख्त आदेश दिया कि रिहायईशी इलाकों में दुकाने या व्यावसायिक प्रतिष्ठान नहीं होने चाहिए. बात सही थी लेकिन रहिवासी इलाका कौन सा हो और व्यावसायिक इलाका कौन सा इसका ठीक अंदाज किसी को नहीं था. जब तक थोड़ा पता चलता तब तक एक लाख दुकाने और दफ्तर सील हो चुकी थीं. छुटपुट क्रम तो अब भी जारी है और जिनकी दुकानें, दफ्तर सील हुए हैं उन्हें आज भी नहीं पता कि वे उस जगह का करें तो क्या करें? न वे उसे बेच सकते हैं, न अपना कारोबार कर सकते हैं. सिर्फ रोने के अलावा उनके पास कोई रास्ता बचा नहीं है.
कोर्ट के आदेश के बाद शहर में जो तबाही और आतंक मचा था उस पर सवाल उठना लाजिमी था. खोजबीन हुई तो जो तथ्य उभरकर सामने आये वे सवालों का जवाब देने के लिए पर्याप्त थे. एक बात जो पता चली लेकिन सार्वजनिक तौर पर सामने नहीं आयी कि जिन दिनों सब्बरवाल सीलिंग का आदेश दे रहे थे उन्हीं दिनों उनके दो बेटों नितिन और चेतन सब्बरवाल ने शापिंग माल्स बनानेवाली कंपनियों से साझेदारी की थी.
कंपनी मामलों के विभाग में चेतन और नितिन सब्बरवाल ने जो दस्तावेज जमा कराए हैं उसके अनुसार 2004 में उनका कारोबार लाखों में था. उनकी तीन कंपनियां थीं. 1, पवन इम्पेक्स, सब्स एक्सपोर्ट और सुग एक्सपोर्ट. इन कंपनियों का पंजीकृत कार्यालय 3/81, पंजाबी बाग नई दिल्ली था. लेकिन इसी साल इस दफ्तर को यहां से हटाकर 6 मोतीलाल नेहरू मार्ग ले जाया गया. यह कोई व्यावसायिक परिसर नहीं बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के सर्वोच्च न्यायाधीश का घर था. सारा व्यावसायिक काम-धाम यहां से चलता रहा और किसी ने कोई विरोध नहीं किया. लुटियन्स जोन को सब्बरवाल और उनके बेटों ने मिलकर व्यावसायिक जोन बना दिया. इससे दो फायदे हुए. पहला तो उनका पंजाबी बाग वाला घर सील होने से बच गया और दूसरा जिन कंपनियों से वे साझीदारी करने जा रहे थे उनको रसूखवाला एक ठिकाना मिल गया.
23 अक्टूबर 2004 को पवन इम्पेक्स का विस्तार किया जाता है और इसमें दिल्ली के एक बिल्डर बीपीटीपी के काबुल चावला को 50 प्रतिशत का शेयरधारक बना लिया जाता है. इसके बाद 12 फरवरी 2005 को काबुल चावला की पत्नी अंजली चावला को भी पवन इम्पेक्स का निदेशक नियुक्त कर दिया जाता है. अब चेतन और नितिन बिल्डरी के व्यवसाय में उतरने का फैसला किया. 8 अप्रैल 2005 को एक नयी कंपनी शुरू की गयी जिसका नाम था- हरपवन कंसट्रक्टर्स. कुछ महीने बाद इसमें 25 अक्टूबर को दिल्ली के अन्य बिल्डर पुरूषोत्तम बाघेरिया को इस नयी कंपनी में साझीदार बना लिया और दोनों ने साकेत में दिल्ली का सबसे बड़ा माल स्क्वायर माल बनाने की घोषणा कर दी.
जब तक सब्बरवाल सीलिंग का आदेश देना शुरू करते तब तक उनके बेटे बिल्डरी के व्यवसाय में अपना पांव जमा चुके थे. 2004 में लाख टके की कंपनी पवन इम्पेक्स 21 जून 2006 को 3 करोड़ की कंपनी हो गयी. काबुल चावला ने 1.5 करोड़ रूपये लगाये और यूनियन बैंक आफ इंडिया ने भी 28 करोड़ का ऋण दे दिया. ऋण पाने के लिए जो सम्पति दिखाई गयी थी वह नोएडा में है. नोएडा के सेक्टर 125 के प्लाट नंबर ए-3,4,5 को रेहन रखा गया यह कहकर कि इस जमीन और यहां स्थित मशीनरी के ऊपर हम यह कर्ज ले रहे हैं. हकीकत यह है कि जमीन जरूर है लेकिन वहां कोई मशीनरी या कलपुर्जे नहीं है. फिर भी बैंक ने उदारता दिखाते हुए जितना ऋण सब्बरवाल बंधु चाहते थे उन्हें दे दिया.
नोएडा की इस 12 हजार वर्गमीटर जमीन पर माल बन रहा है. पवन इम्पेक्स को यह जमीन मुलायम सिंह सरकार ने 3700 रूपये प्रति वर्ग मीटर के लिहाज से दिया था. जबकि उस समय भी यहां जमीन का बाजार भाव 30 हजार रूपये प्रति वर्ग मीटर था. सबरवाल भाईयों की दूसरी कंपनी सब्स एक्सपोर्ट को 10 नवंबर 2006 को 4000 रूपये प्रति वर्गमीटर की दर पर सेक्टर 68 में प्लाट नंबर 12 ए आवंटित किया गया. इसका भी क्षेत्रफल 12 हजार वर्गमीटर था. इसके पहले 6 नवंबर को सब्स एक्सपोर्ट को नोएडा सेक्टर 63 में सी-103, 104, 105 आवंटित किये गये. हर प्लाट 800 वर्गमीटर का था और सब्बरवाल बंधुओं को सिर्फ 2100 रूपये प्रति वर्गमीटर के लिहाज से दिया गया. सेक्टर आठ वाले प्लाट पर हाल में ही सब्बरवाल बंधुओं ने एक फैक्टरी बनाई है. सब्बरवाल की पत्नी सीबा सब्बरवाल को भी सेक्टर 44 में एक आवासीय प्लाट आवंटित किया गया जिसका नाम नोएडा भूमि घोटाले में भी आया था. इसके अलावा सब्बरवाल बंधुओं ने मार्च 2007 में 9 महारानी बाग में एख आवास खरीदा जिसकी कीमत बतायी गयी 16 करोड़ रूपये.
इस तरह 2004 तक छोटे आयात-निर्यात का कारोबार करनेवाले सब्बरवाल बंधु दो वर्षों में ही मालामाल व्यवसायी हो गये. यह सब उस दौरान हुआ जब उनके पिता न्यायमूर्ति वाई के सब्बरवाल न्यायाधीश थे फिर मुख्य न्यायाधीश बने. यह सही है कि उनके कुछ फैसले सचमुच बहुत अच्छे थे तो क्या उनके अच्छे फैसलों की आड़ में वे अपने कदाचारों से मुक्त हो जाते हैं?