जिस तरीके से इस पूरी घटना को पेश किया गया उससे यह धारणा बनती है कि जैसे सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक सदस्य के गलत मकसद की पूर्ति के लिए अपना इस्तेमाल होने दिया। इससे इस संस्था से आम लोगों का भरोसा उठाने करने की कोशिश की गई है- दिल्ली हाई कोर्ट ने मिड डे अखबार के दो पत्रकारों, एक कार्टूनिस्ट और प्रकाशक को सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का दोषी ठहराते हुए यह बात कही है। मसला दिल्ली में सीलिंग संबंधी सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच के फैसलों का था जिसके एक सदस्य पूर्व प्रधान न्यायाधीश वाईके सब्बरवाल थे। आरोप यह है कि इन फैसलों से न्यायमूर्ति सब्बरवाल के बेटों को फायदा पहुंचा, जो उनके सरकारी निवास में रहते हुए अपना कारोबार चला रहे थे। हाई कोर्ट ने इस संबंध में मिड डे अखबार में छपी रिपोर्ट की सच्चाई पर गौर करने के बजाय अखबार को सुप्रीम कोर्ट की नीयत पर शक करने का दोषी ठहरा दिया।
लेकिन यह पहला मामला नहीं है, जब न्यायपालिका ने उसे आईना दिखाने की कोशिश पर ऐसा रुख अख्तियार किया हो। अभी कुछ ही समय पहले ज़ी न्यूज चैनल के पत्रकार को खुद सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना के ही मामले में माफी मांगने का आदेश दिया। उस पत्रकार का दोष यह था कि उसने गुजरात की निचली अदालतों में जारी भ्रष्टाचार का खुलासा करने के लिए स्टिंग ऑपरेशन किया। वहां पैसा देकर राष्ट्रपति और खुद तब के सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ उसने वारंट जारी करवा दिए।
कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय सुनाया कि किसी न्यायिक अधिकारी के गलत फैसला देने पर उसके खिलाफ अनुशासन की कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती, न ही उसे सजा दी जा सकती है। यह मामला उत्तर प्रदेश के एक ऐसे न्यायिक अधिकारी के मामले में आया, जिस पर घूस लेने का आरोप लगा था। इसकी जांच कराई गई। इसके आधार पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उस न्यायिक अधिकारी की दो वेतनवृद्धि रोकने और पदावनति करने की सजा सुनाई। सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ इस फैसले को खारिज कर दिया, बल्कि हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील करने वाले न्यायिक अधिकारी को जिला जज के रूप में नियुक्त करने और उसके खिलाफ कार्यवाही की अवधि के सभी वेतन-भत्तों का भुगतान करने का आदेश भी दिया। (द हिंदू, १९ अप्रैल २००७)
इसके पहले हाई कोर्टों में दो जजों की नियुक्ति के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति की आपत्तियों को नजरअंदाज कर दिया। इनमें न्यायमूर्ति एसएल भयाना के खिलाफ जेसिका लाल हत्याकांड में दिल्ली हाई कोर्ट ने कड़ी टिप्पणियां की थीं। उधर न्यायमूर्ति जगदीश भल्ला पर रिलायंस एनर्जी को लाभ पहुंचाने का आरोप था। राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम से इन दोनों की तरक्की पर पुनर्विचार करने की अपील की थी। लेकिन जजों के इस समूह यानी कॉलेजियम ने इन आपत्तियों को नजरअंदाज करते हुए न्यायमूर्ति भयाना को दिल्ली हाई कोर्ट का जज नियुक्त कर दिया। न्यायमूर्ति भल्ला को छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया।
इन फैसलों ने अवमानना संबंधी कानून और लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायपालिका की जिम्मेदारी और भूमिकाओं पर नई बहस खड़ी कर दी है। जहां तक नियुक्तियों में कार्यपालिका के आगे न झुकने की बात है तो उसे सामान्य स्थितियों में इसे एक स्वस्थ परिघटना माना जाता। तीन दशक पहले जब कार्यपालिका सर्वशक्तिमान दिखाई देती थी और सरकार जजों की नियुक्ति अपनी सुविधा से करती थी, उस समय न्यायिक स्वतंत्रता की ऐसी मांग देश में पुरजोर तरीके से उठी। एक लिहाज से यह संतोष की बात हो सकती है कि आखिरकार अब न्यायपालिका ने भारत में एक स्वतंत्र हैसियत बना ली है। राजनीतिक विवादों के बीच न्यायिक निष्पक्षता किसी भी लोकतंत्र की जरूरी शर्त है और मौजूदा न्यायिक स्वतंत्रता इसे सुनिश्चित कर सके तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी।
लेकिन परेशान करने वाली बात यह है कि न्यायपालिका में अपनी स्वतंत्रता जताने के साथ-साथ राज्य-व्यवस्था के दूसरे समकक्ष अंगों के कार्य और अधिकार क्षेत्र में दखल देने की प्रवृत्ति बढ़ती गई है। इसे न्यायिक सक्रियता का नाम दिया गया है। यानी ऐसी सक्रियता जो दूसरे अंगों में मौजूद बुराइयों और लापरवाहियों को दूर करने के लिए एक मुहिम के रूप में शुरू की गई है। जन प्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार और जन समस्याओं के प्रति उनके उदासीन रवैये पर जज अक्सर कड़ी फटकार लगाते हैं, जिसे मीडिया में खूब जगह मिलती रही है। जज कानून के साथ-साथ अक्सर नैतिकता को भी परिभाषित करते सुने गए हैं। इसका एक लाभ यह हुआ कि शासन के विभिन्न अंगों के उत्तरदायित्व को लेकर जनता के बड़े हिस्से में जागरूकता पैदा हुई है। इससे सार्वजनिक जीवन में आचरण की कुछ कसौटियां आम लोगों के दिमाग में कायम हुई हैं।यह बहुत स्वाभाविक है कि लोग उन कसौटियों को न्यायपालिका पर भी लागू करना चाहें। आखिर लोकतंत्र की आम धारणा और अपनी संवैधानिक व्यवस्था में न्यायपालिका भी जनता की एक सेवक है। उसके सुपरिभाषित कार्य और अधिकार क्षेत्र हैं। लोगों को यह अपेक्षा रहती है कि शासन का यह अंग अपने अधिकार क्षेत्र में रहते हुए अपने इन कर्त्तव्यों का सही ढंग से पालन करे। साथ ही जब सार्वजनिक आचरण की अपेक्षाओं को खुद न्यायपालिका ने काफी ऊंचा कर दिया है, तो उस कसौटी पर खुद वह भी खरा उतरे।देश के कई प्रधान न्यायाधीश न्यायपालिका के निचले स्तर में भ्रष्टाचार मौजूद होने की बात स्वीकार कर चुके हैं। ऐसे में अगर निचली अदालत के किसी न्यायिक अधिकारी पर लगे इल्जाम को जांच में सही पाया गया और हाई कोर्ट ने उस आधार पर सजा सुनाई तो सुप्रीम कोर्ट ने उसे खारिज कर कैसी मिसाल कायम की, इसे समझ पाना मुश्किल है। अगर किन्ही जजों की, भले वो निर्दोष हों, लेकिन सार्वजनिक जीवन में उनकी इतनी नकारात्मक छवि बनी हो कि राष्ट्रपति को उनकी तरक्की पर एतराज जताना पड़े, तो क्या उनके पक्ष में मजबूती से खड़ा रहना न्यायिक स्वतंत्रता को जताने की सही मिसाल माना जाएगा? निचली अदालतों में भ्रष्टाचार का खुलासा क्या कोर्ट की अवमानना है? और किसी जज के फैसले पर अगर संदेह पैदा हो, मीडिया के पास इस बारे में कुछ दस्तावेज हों तो क्या उन्हें छापना गुनाह है? इन सभी घटनाओं के संदर्भ में सबसे प्रासंगिक सवाल यह है कि क्या इन सब कदमों से न्यायपालिका की इज्जत बढ़ रही है?
न्यायिक सक्रियता शुरू होने और उसे जनता के एक बड़े हिस्से में मिले समर्थन की परिस्थितियों पर अगर गौर करें तो खुद न्यायपालिका से जुड़े लोगों के लिए यह सवाल अहम हो जाता है। केंद्र में राजनीतिक अस्थिरता और न्यायिक सक्रियता एक ही दौर की परिघटनाएं हैं। १९९० के दशक में भारतीय समाज एक बड़ी उथल-पुथल से गुजरा। एक तरफ सामाजिक न्याय की बढ़ती आकांक्षा से कमजोर तबकों में मजबूत गोलबंदी हुई और दूसरी तरफ उसकी प्रतिक्रिया में शासक समूहों ने उग्र दक्षिणपंथी रुख अख्तियार किया। इस टकराव का एक परिणाम राजनीतिक अस्थिरता के रूप में सामने आया। किसी एक पार्टी को बहुमत मिलना लगातार दूर की संभावना बनता गया। ऐसे में केंद्र में कमजोर सरकारों का दौर आया, और संसद में बिखराव ज्यादा नजर आने लगा। नतीजा यह हुआ कि शासन व्यवस्था के इन दोनों अंगों के लिए अपने अधिकार को जताना लगातार मुश्किल होता गया। ऐसे दौर में न सिर्फ न्यायपालिका बल्कि चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं ने भी अपनी नई भूमिका बनाई। इस दौर में राजनेताओं की अकुशलता और शासन व्यवस्था में भ्रष्टाचार ज्यादा खुलकर सामने आने लगे, जिससे आम जन में विरोध और नाराजगी का गहरा भाव पैदा हुआ। ऐसे में जब न्यायपालिका ने भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्ती बरती या शासन के आम कार्यों में दखल देना शुरू किया तो मोटे तौर पर लोगों ने उसका स्वागत किया।
यह बात ध्यान में रखने की है कि न्यायपालिका इसलिए लोगों का समर्थन पा सकी क्यों कि आम तौर पर उसकी एक अच्छी छवि लोगों के मन में मौजूद रही है। अगर यह छवि मैली होती है तो फिर न्यायपालिका वैसे ही जन समर्थन की उम्मीद नहीं कर सकती। वह छवि बनी रहे, इसके लिए अंग्रेजी की यह कहावत शायद मार्गदर्शक हो सकती है कि सीज़र की पत्नी को शक के दायरे से ऊपर होना चाहिए। यह विचारणीय है कि क्या हर हाल में, न्यायपालिका के हर अंग का बचाव ऐसी छवि को बनाए रखने में सहायक हो सकता है?
यहां हम इस बात को नहीं भूल सकते कि न्यायिक सक्रियता के इसी दौर में न्यायपालिका की वर्गीय प्राथमिकताओं पर बहस तेज होती जा रही है। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की तरफ से कराए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष रहा है कि न्यायपालिका ने प्रगतिशील फैसलों और जन हित याचिकाओं पर सशक्त पहल के दौर को अब पलट दिया है और उसने जन विरोधी लबादा ओढ़ लिया है। इस अध्ययन में कहा गया है- हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों ने कई जन विरोधी फैसले दिए हैं। इनसे उनकी प्राथमिकताओं में पूरा बदलाव जाहिर हुआ है और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ है। (डीएनए, १६ अप्रैल, २००७). शायद इससे कड़ी आलोचना और कोई नहीं हो सकती।
बौद्धिक क्षेत्र में न्यायपालिका की इन प्राथमिकताओं को भारतीय लोकतंत्र में चल रहे विभिन्न हितों के व्यापक संघर्षों की पृष्ठभूमि में देखा जा रहा है। दरअसल, जिस दौर में न्यायिक सक्रियता शुरू हुई, उसी दौर में राजनीतिक सत्ता के ढांचे में बदलाव की ऐतिहासिक प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ी है। सदियों से दबाकर रखे गए समूहों ने लोकतंत्र की आधुनिक व्यवस्था के तहत मिले मौकों का फायदा उठाते हुए अपनी राजनीतिक शक्ति विकसित की और यह शक्ति आज किसकी सरकार बनेगी, यह तय करने में काफी हद तक निर्णायक हो गई है। एक व्यक्ति, एक वोट और एक वोट, एक मूल्य के जिस सिद्धांत को भारतीय संविधान में अपनाया गया, उसका असली असर दिखने में कुछ दशक जरूर लगे, लेकिन उससे एक ऐसी प्रक्रिया शुरू हुई, जिसने भारतीय राजनीति का स्वरूप बदल दिया है। राज सत्ता पर बढ़ते अधिकार के साथ अब ये समूह सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में भी अपने लिए अधिकार और विशेष अवसरों की मांग कर रहे हैं। जाहिर है, जिनका सदियों से इन संसाधनों पर वर्चस्व है, वो आसानी से समझौता करने को तैयार नहीं हैं।
राजनीतिक रूप से लगातार कमजोर पड़ते जाने के बाद इन तबकों की आखिरी उम्मीद अब कुछ संवैधानिक संस्थाओं से बची है। इसलिए कि इन संस्थाओं में आम तौर पर अभिजात्य वर्गों के लोग ही आते हैं, और उनका अपना नजरिया भी यथास्थितिवादी होता है। सार्वजनिक नीतियों के मामले में न्यायपालिका के अगर पिछले एक दशक के रुझान पर नजर डाली जाए तो इस वर्गीय नजरिए की वहां भी काफी झलक देखी जा सकती है। मौटे तौर पर यह रुझान कुछ ऐसा रहा हैःमजदूर और वंचित समूहों के अधिकारों को न्यायिक फैसलों से संकुचित करने की कोशिश की गई है। बंद और आम हड़ताल को गैर-कानूनी करार दिया गया है और चार साल पहले तमिलनाडु के सरकारी कर्मचारियों की हड़ताल के मामले में तो यह फैसला दे दिया गया कि कर्मचारियों को हड़ताल का अधिकार ही नहीं है। इस तरह मजदूर तबके ने लंबी लड़ाई से सामूहिक सौदेबाजी का जो अधिकार हासिल किया, उसे कलम की एक नोक से खत्म कर देने की कोशिश हुई। कर्मचारियों और मजदूरों के प्रबंधन से निजी विवादों के मामले में लगभग यह साफ कर दिया गया है कि मजदूरों को कोई अधिकार नहीं है, प्रबंधन कार्य स्थितियों को अपने ढंग से तय कर सकता है। अगर इसके साथ ही विस्थापन, विकास और पूंजीवादी परियोजनाओं के मुद्दों को जोड़ा जाए तो देखा जा सकता है कि कैसे न्यायपालिका के फैसलों से मौजूदा शासक समूहों के हित सधे हैं।अब अगर सामाजिक और राजनीतिक मामलों पर गौर करें तो संवैधानिक संस्थाओं की तरफ से न सिर्फ लोकतंत्र को सीमित करने बल्कि कई मौकों पर लोकतंत्र के रोलबैक की कोशिश होती हुई भी नजर आती है। इसकी एक बड़ी मिसाल शिक्षा संस्थानों में आरक्षण का मामला है। वरिष्ठ वकील एमपी राजू ने इस आरक्षण पर रोक लगाए जाने के बाद लेख में लिखा- यह फैसला काफी हद तक प्रतिगामी भेदभाव के अमेरिकी सिद्धांत पर आधारित है। यह सिद्धांत यह है कि विशेष सुविधाएं देने के लिए जो वर्गीकरण किया जाएगा, उससे उन वर्गों से बाहर रह गए तबकों को नुकसान नहीं होना चाहिए। इस प्रकरण में इसका मतलब है कि अगड़ी जातियों को नुकसान नहीं होना चाहिए। इससे यह सवाल जरूर उठता है कि क्या न्यायपालिका ऊंची जातियों और अभिजात्य वर्गों के हित-रक्षक की भूमिका में सामने आ रही है? और क्या संसद और सरकारों के प्रति उसका कड़ा, कई बार इन अंगों के प्रति अपमानजनक सा लगने वाला उसका नजरिया असल में इसलिए ऐसा है कि लोकतंत्र के इन अंगों में कमजोर वर्गों का अब निर्णायक प्रतिनिधित्व होने लगा है?
इन सवालों पर न्यायपालिका से जुड़े अंगों और व्यापक रूप से पूरे देश में आज जरूर बहस होनी चाहिए। आधुनिक लोकतंत्र स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के सर्वमान्य मूल्यों और शक्तियों के पृथक्करण के बुनियादी सिद्धांत पर टिका हुआ है। इसमें कोई असंतुलन पूरी व्यवस्था के लिए गंभीर चुनौतियां पैदा कर सकता है। आजादी के बाद शुरुआती दशकों में कार्यपालिका के वर्चस्व और केंद्र की प्रभुता की वजह से कई विसंगतियां पैदा हुईं, जिससे देश के कई हिस्सों में राजनीतिक हिंसा की स्थितियां और अलगाव की भावना पैदा हुई। विकेंद्रीकरण और आम जन की लोकतांत्रिक अपेक्षाओं को प्रतिनिधित्व देने वाली नई शक्तियों के उभार से वह असंतुलन काफी हद तक दूर होता नजर आया है। लेकिन इस नए दौर में न्यायपालिका का रुख नई चिंताएं पैदा कर रहा है। ये चिंताएं तभी दूर हो सकती हैं, जब न्यायपालिका सीज़र की पत्नी वाली कहावत पर खरी उतरते हुए तमाम तरह के संदेहों से ऊपर बनी रही रहे। यानी उससे जुड़े लोगों की अपनी छवि भी संदेह से परे रहे और उसके वर्गीय नजरिए पर भी सवाल न उठेँ। फिलहाल, मिड डे के मामले में फैसले से दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां ही याद आती हैं- मत कहो आकाश में कोहरा घना है, ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
साभार- इंकलाब
लेकिन यह पहला मामला नहीं है, जब न्यायपालिका ने उसे आईना दिखाने की कोशिश पर ऐसा रुख अख्तियार किया हो। अभी कुछ ही समय पहले ज़ी न्यूज चैनल के पत्रकार को खुद सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना के ही मामले में माफी मांगने का आदेश दिया। उस पत्रकार का दोष यह था कि उसने गुजरात की निचली अदालतों में जारी भ्रष्टाचार का खुलासा करने के लिए स्टिंग ऑपरेशन किया। वहां पैसा देकर राष्ट्रपति और खुद तब के सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ उसने वारंट जारी करवा दिए।
कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय सुनाया कि किसी न्यायिक अधिकारी के गलत फैसला देने पर उसके खिलाफ अनुशासन की कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती, न ही उसे सजा दी जा सकती है। यह मामला उत्तर प्रदेश के एक ऐसे न्यायिक अधिकारी के मामले में आया, जिस पर घूस लेने का आरोप लगा था। इसकी जांच कराई गई। इसके आधार पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उस न्यायिक अधिकारी की दो वेतनवृद्धि रोकने और पदावनति करने की सजा सुनाई। सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ इस फैसले को खारिज कर दिया, बल्कि हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील करने वाले न्यायिक अधिकारी को जिला जज के रूप में नियुक्त करने और उसके खिलाफ कार्यवाही की अवधि के सभी वेतन-भत्तों का भुगतान करने का आदेश भी दिया। (द हिंदू, १९ अप्रैल २००७)
इसके पहले हाई कोर्टों में दो जजों की नियुक्ति के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति की आपत्तियों को नजरअंदाज कर दिया। इनमें न्यायमूर्ति एसएल भयाना के खिलाफ जेसिका लाल हत्याकांड में दिल्ली हाई कोर्ट ने कड़ी टिप्पणियां की थीं। उधर न्यायमूर्ति जगदीश भल्ला पर रिलायंस एनर्जी को लाभ पहुंचाने का आरोप था। राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम से इन दोनों की तरक्की पर पुनर्विचार करने की अपील की थी। लेकिन जजों के इस समूह यानी कॉलेजियम ने इन आपत्तियों को नजरअंदाज करते हुए न्यायमूर्ति भयाना को दिल्ली हाई कोर्ट का जज नियुक्त कर दिया। न्यायमूर्ति भल्ला को छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया।
इन फैसलों ने अवमानना संबंधी कानून और लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायपालिका की जिम्मेदारी और भूमिकाओं पर नई बहस खड़ी कर दी है। जहां तक नियुक्तियों में कार्यपालिका के आगे न झुकने की बात है तो उसे सामान्य स्थितियों में इसे एक स्वस्थ परिघटना माना जाता। तीन दशक पहले जब कार्यपालिका सर्वशक्तिमान दिखाई देती थी और सरकार जजों की नियुक्ति अपनी सुविधा से करती थी, उस समय न्यायिक स्वतंत्रता की ऐसी मांग देश में पुरजोर तरीके से उठी। एक लिहाज से यह संतोष की बात हो सकती है कि आखिरकार अब न्यायपालिका ने भारत में एक स्वतंत्र हैसियत बना ली है। राजनीतिक विवादों के बीच न्यायिक निष्पक्षता किसी भी लोकतंत्र की जरूरी शर्त है और मौजूदा न्यायिक स्वतंत्रता इसे सुनिश्चित कर सके तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी।
लेकिन परेशान करने वाली बात यह है कि न्यायपालिका में अपनी स्वतंत्रता जताने के साथ-साथ राज्य-व्यवस्था के दूसरे समकक्ष अंगों के कार्य और अधिकार क्षेत्र में दखल देने की प्रवृत्ति बढ़ती गई है। इसे न्यायिक सक्रियता का नाम दिया गया है। यानी ऐसी सक्रियता जो दूसरे अंगों में मौजूद बुराइयों और लापरवाहियों को दूर करने के लिए एक मुहिम के रूप में शुरू की गई है। जन प्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार और जन समस्याओं के प्रति उनके उदासीन रवैये पर जज अक्सर कड़ी फटकार लगाते हैं, जिसे मीडिया में खूब जगह मिलती रही है। जज कानून के साथ-साथ अक्सर नैतिकता को भी परिभाषित करते सुने गए हैं। इसका एक लाभ यह हुआ कि शासन के विभिन्न अंगों के उत्तरदायित्व को लेकर जनता के बड़े हिस्से में जागरूकता पैदा हुई है। इससे सार्वजनिक जीवन में आचरण की कुछ कसौटियां आम लोगों के दिमाग में कायम हुई हैं।यह बहुत स्वाभाविक है कि लोग उन कसौटियों को न्यायपालिका पर भी लागू करना चाहें। आखिर लोकतंत्र की आम धारणा और अपनी संवैधानिक व्यवस्था में न्यायपालिका भी जनता की एक सेवक है। उसके सुपरिभाषित कार्य और अधिकार क्षेत्र हैं। लोगों को यह अपेक्षा रहती है कि शासन का यह अंग अपने अधिकार क्षेत्र में रहते हुए अपने इन कर्त्तव्यों का सही ढंग से पालन करे। साथ ही जब सार्वजनिक आचरण की अपेक्षाओं को खुद न्यायपालिका ने काफी ऊंचा कर दिया है, तो उस कसौटी पर खुद वह भी खरा उतरे।देश के कई प्रधान न्यायाधीश न्यायपालिका के निचले स्तर में भ्रष्टाचार मौजूद होने की बात स्वीकार कर चुके हैं। ऐसे में अगर निचली अदालत के किसी न्यायिक अधिकारी पर लगे इल्जाम को जांच में सही पाया गया और हाई कोर्ट ने उस आधार पर सजा सुनाई तो सुप्रीम कोर्ट ने उसे खारिज कर कैसी मिसाल कायम की, इसे समझ पाना मुश्किल है। अगर किन्ही जजों की, भले वो निर्दोष हों, लेकिन सार्वजनिक जीवन में उनकी इतनी नकारात्मक छवि बनी हो कि राष्ट्रपति को उनकी तरक्की पर एतराज जताना पड़े, तो क्या उनके पक्ष में मजबूती से खड़ा रहना न्यायिक स्वतंत्रता को जताने की सही मिसाल माना जाएगा? निचली अदालतों में भ्रष्टाचार का खुलासा क्या कोर्ट की अवमानना है? और किसी जज के फैसले पर अगर संदेह पैदा हो, मीडिया के पास इस बारे में कुछ दस्तावेज हों तो क्या उन्हें छापना गुनाह है? इन सभी घटनाओं के संदर्भ में सबसे प्रासंगिक सवाल यह है कि क्या इन सब कदमों से न्यायपालिका की इज्जत बढ़ रही है?
न्यायिक सक्रियता शुरू होने और उसे जनता के एक बड़े हिस्से में मिले समर्थन की परिस्थितियों पर अगर गौर करें तो खुद न्यायपालिका से जुड़े लोगों के लिए यह सवाल अहम हो जाता है। केंद्र में राजनीतिक अस्थिरता और न्यायिक सक्रियता एक ही दौर की परिघटनाएं हैं। १९९० के दशक में भारतीय समाज एक बड़ी उथल-पुथल से गुजरा। एक तरफ सामाजिक न्याय की बढ़ती आकांक्षा से कमजोर तबकों में मजबूत गोलबंदी हुई और दूसरी तरफ उसकी प्रतिक्रिया में शासक समूहों ने उग्र दक्षिणपंथी रुख अख्तियार किया। इस टकराव का एक परिणाम राजनीतिक अस्थिरता के रूप में सामने आया। किसी एक पार्टी को बहुमत मिलना लगातार दूर की संभावना बनता गया। ऐसे में केंद्र में कमजोर सरकारों का दौर आया, और संसद में बिखराव ज्यादा नजर आने लगा। नतीजा यह हुआ कि शासन व्यवस्था के इन दोनों अंगों के लिए अपने अधिकार को जताना लगातार मुश्किल होता गया। ऐसे दौर में न सिर्फ न्यायपालिका बल्कि चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं ने भी अपनी नई भूमिका बनाई। इस दौर में राजनेताओं की अकुशलता और शासन व्यवस्था में भ्रष्टाचार ज्यादा खुलकर सामने आने लगे, जिससे आम जन में विरोध और नाराजगी का गहरा भाव पैदा हुआ। ऐसे में जब न्यायपालिका ने भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्ती बरती या शासन के आम कार्यों में दखल देना शुरू किया तो मोटे तौर पर लोगों ने उसका स्वागत किया।
यह बात ध्यान में रखने की है कि न्यायपालिका इसलिए लोगों का समर्थन पा सकी क्यों कि आम तौर पर उसकी एक अच्छी छवि लोगों के मन में मौजूद रही है। अगर यह छवि मैली होती है तो फिर न्यायपालिका वैसे ही जन समर्थन की उम्मीद नहीं कर सकती। वह छवि बनी रहे, इसके लिए अंग्रेजी की यह कहावत शायद मार्गदर्शक हो सकती है कि सीज़र की पत्नी को शक के दायरे से ऊपर होना चाहिए। यह विचारणीय है कि क्या हर हाल में, न्यायपालिका के हर अंग का बचाव ऐसी छवि को बनाए रखने में सहायक हो सकता है?
यहां हम इस बात को नहीं भूल सकते कि न्यायिक सक्रियता के इसी दौर में न्यायपालिका की वर्गीय प्राथमिकताओं पर बहस तेज होती जा रही है। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की तरफ से कराए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष रहा है कि न्यायपालिका ने प्रगतिशील फैसलों और जन हित याचिकाओं पर सशक्त पहल के दौर को अब पलट दिया है और उसने जन विरोधी लबादा ओढ़ लिया है। इस अध्ययन में कहा गया है- हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों ने कई जन विरोधी फैसले दिए हैं। इनसे उनकी प्राथमिकताओं में पूरा बदलाव जाहिर हुआ है और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ है। (डीएनए, १६ अप्रैल, २००७). शायद इससे कड़ी आलोचना और कोई नहीं हो सकती।
बौद्धिक क्षेत्र में न्यायपालिका की इन प्राथमिकताओं को भारतीय लोकतंत्र में चल रहे विभिन्न हितों के व्यापक संघर्षों की पृष्ठभूमि में देखा जा रहा है। दरअसल, जिस दौर में न्यायिक सक्रियता शुरू हुई, उसी दौर में राजनीतिक सत्ता के ढांचे में बदलाव की ऐतिहासिक प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ी है। सदियों से दबाकर रखे गए समूहों ने लोकतंत्र की आधुनिक व्यवस्था के तहत मिले मौकों का फायदा उठाते हुए अपनी राजनीतिक शक्ति विकसित की और यह शक्ति आज किसकी सरकार बनेगी, यह तय करने में काफी हद तक निर्णायक हो गई है। एक व्यक्ति, एक वोट और एक वोट, एक मूल्य के जिस सिद्धांत को भारतीय संविधान में अपनाया गया, उसका असली असर दिखने में कुछ दशक जरूर लगे, लेकिन उससे एक ऐसी प्रक्रिया शुरू हुई, जिसने भारतीय राजनीति का स्वरूप बदल दिया है। राज सत्ता पर बढ़ते अधिकार के साथ अब ये समूह सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में भी अपने लिए अधिकार और विशेष अवसरों की मांग कर रहे हैं। जाहिर है, जिनका सदियों से इन संसाधनों पर वर्चस्व है, वो आसानी से समझौता करने को तैयार नहीं हैं।
राजनीतिक रूप से लगातार कमजोर पड़ते जाने के बाद इन तबकों की आखिरी उम्मीद अब कुछ संवैधानिक संस्थाओं से बची है। इसलिए कि इन संस्थाओं में आम तौर पर अभिजात्य वर्गों के लोग ही आते हैं, और उनका अपना नजरिया भी यथास्थितिवादी होता है। सार्वजनिक नीतियों के मामले में न्यायपालिका के अगर पिछले एक दशक के रुझान पर नजर डाली जाए तो इस वर्गीय नजरिए की वहां भी काफी झलक देखी जा सकती है। मौटे तौर पर यह रुझान कुछ ऐसा रहा हैःमजदूर और वंचित समूहों के अधिकारों को न्यायिक फैसलों से संकुचित करने की कोशिश की गई है। बंद और आम हड़ताल को गैर-कानूनी करार दिया गया है और चार साल पहले तमिलनाडु के सरकारी कर्मचारियों की हड़ताल के मामले में तो यह फैसला दे दिया गया कि कर्मचारियों को हड़ताल का अधिकार ही नहीं है। इस तरह मजदूर तबके ने लंबी लड़ाई से सामूहिक सौदेबाजी का जो अधिकार हासिल किया, उसे कलम की एक नोक से खत्म कर देने की कोशिश हुई। कर्मचारियों और मजदूरों के प्रबंधन से निजी विवादों के मामले में लगभग यह साफ कर दिया गया है कि मजदूरों को कोई अधिकार नहीं है, प्रबंधन कार्य स्थितियों को अपने ढंग से तय कर सकता है। अगर इसके साथ ही विस्थापन, विकास और पूंजीवादी परियोजनाओं के मुद्दों को जोड़ा जाए तो देखा जा सकता है कि कैसे न्यायपालिका के फैसलों से मौजूदा शासक समूहों के हित सधे हैं।अब अगर सामाजिक और राजनीतिक मामलों पर गौर करें तो संवैधानिक संस्थाओं की तरफ से न सिर्फ लोकतंत्र को सीमित करने बल्कि कई मौकों पर लोकतंत्र के रोलबैक की कोशिश होती हुई भी नजर आती है। इसकी एक बड़ी मिसाल शिक्षा संस्थानों में आरक्षण का मामला है। वरिष्ठ वकील एमपी राजू ने इस आरक्षण पर रोक लगाए जाने के बाद लेख में लिखा- यह फैसला काफी हद तक प्रतिगामी भेदभाव के अमेरिकी सिद्धांत पर आधारित है। यह सिद्धांत यह है कि विशेष सुविधाएं देने के लिए जो वर्गीकरण किया जाएगा, उससे उन वर्गों से बाहर रह गए तबकों को नुकसान नहीं होना चाहिए। इस प्रकरण में इसका मतलब है कि अगड़ी जातियों को नुकसान नहीं होना चाहिए। इससे यह सवाल जरूर उठता है कि क्या न्यायपालिका ऊंची जातियों और अभिजात्य वर्गों के हित-रक्षक की भूमिका में सामने आ रही है? और क्या संसद और सरकारों के प्रति उसका कड़ा, कई बार इन अंगों के प्रति अपमानजनक सा लगने वाला उसका नजरिया असल में इसलिए ऐसा है कि लोकतंत्र के इन अंगों में कमजोर वर्गों का अब निर्णायक प्रतिनिधित्व होने लगा है?
इन सवालों पर न्यायपालिका से जुड़े अंगों और व्यापक रूप से पूरे देश में आज जरूर बहस होनी चाहिए। आधुनिक लोकतंत्र स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के सर्वमान्य मूल्यों और शक्तियों के पृथक्करण के बुनियादी सिद्धांत पर टिका हुआ है। इसमें कोई असंतुलन पूरी व्यवस्था के लिए गंभीर चुनौतियां पैदा कर सकता है। आजादी के बाद शुरुआती दशकों में कार्यपालिका के वर्चस्व और केंद्र की प्रभुता की वजह से कई विसंगतियां पैदा हुईं, जिससे देश के कई हिस्सों में राजनीतिक हिंसा की स्थितियां और अलगाव की भावना पैदा हुई। विकेंद्रीकरण और आम जन की लोकतांत्रिक अपेक्षाओं को प्रतिनिधित्व देने वाली नई शक्तियों के उभार से वह असंतुलन काफी हद तक दूर होता नजर आया है। लेकिन इस नए दौर में न्यायपालिका का रुख नई चिंताएं पैदा कर रहा है। ये चिंताएं तभी दूर हो सकती हैं, जब न्यायपालिका सीज़र की पत्नी वाली कहावत पर खरी उतरते हुए तमाम तरह के संदेहों से ऊपर बनी रही रहे। यानी उससे जुड़े लोगों की अपनी छवि भी संदेह से परे रहे और उसके वर्गीय नजरिए पर भी सवाल न उठेँ। फिलहाल, मिड डे के मामले में फैसले से दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां ही याद आती हैं- मत कहो आकाश में कोहरा घना है, ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
साभार- इंकलाब
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