सोमवार, 10 सितंबर 2007

अन्यायमूर्ति सब्बरवाल?

उन दिनों दिल्ली में खूब धरने-प्रदर्शन हो रहे थे. कहें तो हाहाकरा मचा हुआ था. एक के बाद एक अदालती आदेशों के कारण दिल्ली सरकार, प्रशासन, पुलिस, एमसीडी, व्यापारी और हर खासो-आम आदमी अपने उजड़ने के खौफ से खौफजदा था. 16 फरवरी 2006 को सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश वाई के सब्बरवाल ने सख्त आदेश दिया कि रिहायईशी इलाकों में दुकाने या व्यावसायिक प्रतिष्ठान नहीं होने चाहिए. बात सही थी लेकिन रहिवासी इलाका कौन सा हो और व्यावसायिक इलाका कौन सा इसका ठीक अंदाज किसी को नहीं था. जब तक थोड़ा पता चलता तब तक एक लाख दुकाने और दफ्तर सील हो चुकी थीं. छुटपुट क्रम तो अब भी जारी है और जिनकी दुकानें, दफ्तर सील हुए हैं उन्हें आज भी नहीं पता कि वे उस जगह का करें तो क्या करें? न वे उसे बेच सकते हैं, न अपना कारोबार कर सकते हैं. सिर्फ रोने के अलावा उनके पास कोई रास्ता बचा नहीं है.
कोर्ट के आदेश के बाद शहर में जो तबाही और आतंक मचा था उस पर सवाल उठना लाजिमी था. खोजबीन हुई तो जो तथ्य उभरकर सामने आये वे सवालों का जवाब देने के लिए पर्याप्त थे. एक बात जो पता चली लेकिन सार्वजनिक तौर पर सामने नहीं आयी कि जिन दिनों सब्बरवाल सीलिंग का आदेश दे रहे थे उन्हीं दिनों उनके दो बेटों नितिन और चेतन सब्बरवाल ने शापिंग माल्स बनानेवाली कंपनियों से साझेदारी की थी.
कंपनी मामलों के विभाग में चेतन और नितिन सब्बरवाल ने जो दस्तावेज जमा कराए हैं उसके अनुसार 2004 में उनका कारोबार लाखों में था. उनकी तीन कंपनियां थीं. 1, पवन इम्पेक्स, सब्स एक्सपोर्ट और सुग एक्सपोर्ट. इन कंपनियों का पंजीकृत कार्यालय 3/81, पंजाबी बाग नई दिल्ली था. लेकिन इसी साल इस दफ्तर को यहां से हटाकर 6 मोतीलाल नेहरू मार्ग ले जाया गया. यह कोई व्यावसायिक परिसर नहीं बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के सर्वोच्च न्यायाधीश का घर था. सारा व्यावसायिक काम-धाम यहां से चलता रहा और किसी ने कोई विरोध नहीं किया. लुटियन्स जोन को सब्बरवाल और उनके बेटों ने मिलकर व्यावसायिक जोन बना दिया. इससे दो फायदे हुए. पहला तो उनका पंजाबी बाग वाला घर सील होने से बच गया और दूसरा जिन कंपनियों से वे साझीदारी करने जा रहे थे उनको रसूखवाला एक ठिकाना मिल गया.
23 अक्टूबर 2004 को पवन इम्पेक्स का विस्तार किया जाता है और इसमें दिल्ली के एक बिल्डर बीपीटीपी के काबुल चावला को 50 प्रतिशत का शेयरधारक बना लिया जाता है. इसके बाद 12 फरवरी 2005 को काबुल चावला की पत्नी अंजली चावला को भी पवन इम्पेक्स का निदेशक नियुक्त कर दिया जाता है. अब चेतन और नितिन बिल्डरी के व्यवसाय में उतरने का फैसला किया. 8 अप्रैल 2005 को एक नयी कंपनी शुरू की गयी जिसका नाम था- हरपवन कंसट्रक्टर्स. कुछ महीने बाद इसमें 25 अक्टूबर को दिल्ली के अन्य बिल्डर पुरूषोत्तम बाघेरिया को इस नयी कंपनी में साझीदार बना लिया और दोनों ने साकेत में दिल्ली का सबसे बड़ा माल स्क्वायर माल बनाने की घोषणा कर दी.
जब तक सब्बरवाल सीलिंग का आदेश देना शुरू करते तब तक उनके बेटे बिल्डरी के व्यवसाय में अपना पांव जमा चुके थे. 2004 में लाख टके की कंपनी पवन इम्पेक्स 21 जून 2006 को 3 करोड़ की कंपनी हो गयी. काबुल चावला ने 1.5 करोड़ रूपये लगाये और यूनियन बैंक आफ इंडिया ने भी 28 करोड़ का ऋण दे दिया. ऋण पाने के लिए जो सम्पति दिखाई गयी थी वह नोएडा में है. नोएडा के सेक्टर 125 के प्लाट नंबर ए-3,4,5 को रेहन रखा गया यह कहकर कि इस जमीन और यहां स्थित मशीनरी के ऊपर हम यह कर्ज ले रहे हैं. हकीकत यह है कि जमीन जरूर है लेकिन वहां कोई मशीनरी या कलपुर्जे नहीं है. फिर भी बैंक ने उदारता दिखाते हुए जितना ऋण सब्बरवाल बंधु चाहते थे उन्हें दे दिया.
नोएडा की इस 12 हजार वर्गमीटर जमीन पर माल बन रहा है. पवन इम्पेक्स को यह जमीन मुलायम सिंह सरकार ने 3700 रूपये प्रति वर्ग मीटर के लिहाज से दिया था. जबकि उस समय भी यहां जमीन का बाजार भाव 30 हजार रूपये प्रति वर्ग मीटर था. सबरवाल भाईयों की दूसरी कंपनी सब्स एक्सपोर्ट को 10 नवंबर 2006 को 4000 रूपये प्रति वर्गमीटर की दर पर सेक्टर 68 में प्लाट नंबर 12 ए आवंटित किया गया. इसका भी क्षेत्रफल 12 हजार वर्गमीटर था. इसके पहले 6 नवंबर को सब्स एक्सपोर्ट को नोएडा सेक्टर 63 में सी-103, 104, 105 आवंटित किये गये. हर प्लाट 800 वर्गमीटर का था और सब्बरवाल बंधुओं को सिर्फ 2100 रूपये प्रति वर्गमीटर के लिहाज से दिया गया. सेक्टर आठ वाले प्लाट पर हाल में ही सब्बरवाल बंधुओं ने एक फैक्टरी बनाई है. सब्बरवाल की पत्नी सीबा सब्बरवाल को भी सेक्टर 44 में एक आवासीय प्लाट आवंटित किया गया जिसका नाम नोएडा भूमि घोटाले में भी आया था. इसके अलावा सब्बरवाल बंधुओं ने मार्च 2007 में 9 महारानी बाग में एख आवास खरीदा जिसकी कीमत बतायी गयी 16 करोड़ रूपये.
इस तरह 2004 तक छोटे आयात-निर्यात का कारोबार करनेवाले सब्बरवाल बंधु दो वर्षों में ही मालामाल व्यवसायी हो गये. यह सब उस दौरान हुआ जब उनके पिता न्यायमूर्ति वाई के सब्बरवाल न्यायाधीश थे फिर मुख्य न्यायाधीश बने. यह सही है कि उनके कुछ फैसले सचमुच बहुत अच्छे थे तो क्या उनके अच्छे फैसलों की आड़ में वे अपने कदाचारों से मुक्त हो जाते हैं?

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